SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 361
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३३६ ज्ञानसार न रखो ! वर्ना तुम कभी आराधना से विमुख हो जाओगे । जब तुम्हारी आराधनासाधना की कोई प्रशंसा नहीं करेगा, तब तुम्हारा मन आराधना से उचट जाएगा । लोकसंज्ञाहता हन्त नीचैर्गमनदर्शनैः । शंसयति स्वसत्यांगमर्मघातमहाव्यथाम् ॥ २३ ॥६॥ अर्थ : खेद है कि लोकसंज्ञा से आहत जीव, नतमस्तक मन्थर गति से चलते हुए अपने सत्य - व्रतरुप अंग में हुए मर्म प्रहारों की महावेदना ही प्रगट करता है । विवेचन : अफसोस... ! तुम मन्थर गति से नतमस्तक हो चलते हो... ! भला, किसलिए ? इसके पीछे आखिर क्या हेतु है ? क्या तुम लोगों को यह दिखाना चाहते हो कि, 'भूलकर भी किसी जीव की हिंसा न हो जाए, अतः हम यों चलते हैं। धर्मग्रन्थों में प्रदर्शित विधि का पालन कर रहे हैं ! दृष्टि पर हमारा संयम है... इधर... उधर कभी ताकतेझाँकते नहीं और हम उच्च कोटि के आराधक हैं ।' लेकिन यह ढोंग क्यों ? निरे दिखावे से क्या लाभ ? तुम्हारा दंभ खुल गया है ! लोग तुम्हें जब उच्च कोटि का आराधक नहीं कहते तब तुम्हारा चहरा कैसा हतप्रभ और निस्तेज हो उठता है ? दूसरे आराधकों की प्रशंसा तुम्हें अच्छी नहीं लगती ! प्रसंगोपात उनकी निंदा और टीका-टिप्पणी करते हो ! तुम सदा-सर्वदा अपनी ही गुणागाथा सुनना पसंद करते हो । शायद लोकप्रसंशा पाने के लिए तुमने कमर कस रखी है । तप, व्याख्यान, शिष्य, परिवार, मलिनवस्त्रं और अपने वाणी- विलास से किसे आकर्षित करना चाहते हो ? शिवरमणी को ? नहीं, तुम सिर्फ लोगों को अपने भक्त बनाना चाहते हो और येन-केन प्रकारेण उन्हें खुश रखना चाहते हो । तुम धीरे - धीरे मन्थर गति से क्यों चल रहे हो ? तुम्हारे सत्य... संयम आदि अंग पर मार्मिक प्रहारों की मार पडी है। उससे असह्य वेदना हुई है..! लोकसंज्ञा ने तुम्हारे मर्मस्थान में प्रहार किया है ! इन प्रहारों की वेदना से गति धीमी न हो जाएँ तो और क्या हो ? तुम नतमस्तक हो चलते हो ? क्या करें ? शायद लोकसंज्ञा की चकाचौंध
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy