SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 360
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ लोकसंज्ञा-त्याग ३३५ की कहानी आप ही कहते नजर आते हैं । अरे, पुराने जमाने की बात छोड़ दो, आज के युग में भी ऐसे कई प्रसंग प्रत्यक्ष देखने में आते हैं । "मेरी तप-त्याग की आराधना, दान-शील की उपासना, परमार्थ परोपकार के कार्यों से अन्य जीवों को अवगत करूँ... आम जनता की दृष्टि में 'मैं बड़ा आदमी बनूं ।'... लोकजिह्वा पर मेरी प्रशंसा के गीत हो... ।" यह लोकसंज्ञा का एक रुपक है। इस तरह लोक-प्रशंसा के इच्छुक धर्माराधक जीव अपनी त्रुटियाँ, क्षतियाँ और दोषों के छिपाने का हेतुपूर्वक प्रयत्न करता है । आमतौर से वह भयसंज्ञा से पीडित होता है ! "यदि लोग मेरे दोष जान लेंगे तो बड़ी बदनामी होगी ! सदैव यह चिंता उसे खाये रहती है। वह दिन-रोत उद्विग्नअन्यमनस्क और अशान्त दृष्टिगोचर होता है। वास्तव में देखा आए तो लोकसंज्ञा की यह खतरनाक कार्यवाही है। लौकिक मार्ग में तो उसका एकछत्री प्रभाव है ही, लोकोत्सर-मार्ग में भी कोई कम प्रभाव नहीं है । लोकसंज्ञा के नागपाश में फैंसी आत्मा मोक्ष-मार्ग की आराधना करना भूल जाती है और अपने लक्ष्य को तिलांजलि दे देती है। इसीलिए तो ऐसी महाविनाशकारी लोक-संज्ञा का परित्याग करने के लिए भारपूर्वक कहा गया है। . अतः जीव को हमेशा समझना चाहिए : 'हे आत्मन् ! ऐसा सांग सम्पूर्ण सत्य मोक्षमार्ग पाकर तुम्हें अपनी आत्मा को कर्म-बन्धनों से मुक्त करने के लिये प्रयत्न करना चाहिये।' यह हकीकत है कि लोकरंजन करने से तुम्हारी आत्मशुद्धि असम्भव है । शायद तुम्हारी यह धारणा है कि 'आराधमा के कारण विश्व के जीव मेरी जी भरकर प्रशंसा करते हैं !' वह तुम्हारा निरा अज्ञान है । क्योंकि पुण्यकर्मों के उदय से लोकप्रशंसा प्राप्त होती है । जब तक तुम्हारे पूर्वभव के कर्म सबल है तब तक ही हर कोई तुम्हारी स्तुति करेंगे । एक बार अशुभ कर्मों का उदय हुआ नहीं कि ये ही लोग तुम्हारी तरफ देखेंगे तक नहीं ! तुमसे बढकर पुण्यशाली आत्मा मिलते ही वे सब एक स्वर से उसकी प्रशंसा करने में खो जाएंगे और तुम्हें हमेशा के लिये भूल जाएंगे। तुम्हारी आराधना से क्या मोक्षविमुख लोग खुश होंगे? नहीं, इसके बजाय तो आराधना के बलपर तुम अपनी आत्मा को ही प्रसन्न करो। परमात्मा का प्रेम प्राप्त करो। मन में और कोई अपेक्षा
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy