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________________ ३३४ ज्ञानसार मोक्षार्थियों की संख्या नगण्य ही है। क्योंकि जैसे रत्न की परख करनेवाले बहुत कम होते हैं, वैसे आत्मोन्नति हेतु प्रयत्न करनेवालों की संख्या न्यून ही होती है । विवेचन : मोक्षार्थी - मोक्ष के अर्थी । यानी सर्व कर्मक्षय के इच्छुक ! आत्मा की परम विशुद्ध अवस्था की प्राप्ति के अभिलाषी...! ऐसे जीव भला लोकमार्ग में और लोकोत्तरमार्ग में कितने होंगे ? न्यून ही होते हैं, नहीवत् । जिसकी गणना अंगुली पर की जा सकती है । दुनिया में रत्न की परख रखनेवाले जौहरी भला कितने होंगे ? बहुत कम । उसी तरह आत्मसिद्धि के साधक कितने ? नहीवत् ! - मोक्ष ! जहाँ शरीर नहीं, इन्द्रियाँ नहीं, इन्द्रियानुकूल भोगोपभोग नहीं और विषयसुख की अभिलाषा में से उत्पन्न होनेवाले कषाय नहीं ! व्यापार वाणिज्य नहीं, संसार के बहुत बड़े वर्ग के मन में यह उलझन घर कर गई है कि, आखिर मोक्ष में क्या है ? वहाँ जाकर क्या करें ? क्योंकि उनके पास मोक्ष के स्वरूप का यथार्थ ज्ञान नहीं और ना ही मोक्ष सुख की कोई वास्तविक कल्पना है । तब भला मोक्षार्थी कैसे हो सकते ? ठीक वैसे ही लोकोत्तर... जिनेश्वरदेव-प्रणीत मोक्ष - मार्ग में भी कई जीव मोक्षार्थी नहीं होते। वे सब बीच के स्टेशन - स्वर्ग पर उतर जानेवाले होते हैं। जिनको मोक्ष की कल्पना भी न हो, ऐसे लोग क्या मोक्षमार्ग पर चल सकते हैं ? आत्मविशुद्धि के अभिलाषी लोकोत्तर मार्ग पर चलनेवाले जीवों की संख्या मर्यादित ही होती है । लोकोत्तर - जिनभाषित मार्ग में भी लोकसंज्ञा सजाने से बात नहीं आती। अन्य संज्ञाओं पर नियंत्रण रखनेवालों को भी यह अनादिकालीन संज्ञा सता सकती T है । आहारसंज्ञा पर काबू रखनेवाला तपस्वी जो मासक्षमण, अठ्ठाई, अनुम... छठ्ठ उपवास अथवा वर्धमान आयंबिल तप का आराधन करता हो... उसके भी यह लोकसंज्ञा आडे आये बिना नहीं रहती । मैथुन-संज्ञा को वश में रख पूरी निष्ठा के साथ ब्रह्मचर्य का पालन करनेवाले को भी लोकसंज्ञा पीडा पहुँचा के रहती है । परिग्रह संज्ञा को वशीभूत करनेवाले अपरिग्रही महात्माओं को यह संज्ञा इशारों पर नचाती है । ऐसे कई उदाहरण इतिहास के पृष्टों पर अंकित हैं, जो लोकसंज्ञा
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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