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लोकसंज्ञा-त्याग
३३३ भी गोशालक का अपना अनुयायी-वर्ग बहुत बड़ा था ! उससे क्या गोशालक का मत स्वीकार्य हो सकता है ? वास्तव में 'बहुमत से जो आचरण किया जाए उसका ही आचरण करना चाहिए, 'यह मान्यता अज्ञानमूलक है।'
आजकल व्याख्यान में भी कई व्याख्याता इस बात का ध्यान रखते हैं बृहत् समाज, श्रोतावृन्द क्या सुनना चाहता है ? उसका अनुशीलन कर बोलो...!' लोकरूचि का अनुसरण करने से लोकहित की भावना सिद्ध नहीं होती ! क्योंकि आम समाज की रूचि प्रायः आत्मविमुख होती है जडमूलक होती है । उसका अन्धानुकरण करने से क्या लोक-हित सम्भव है ? नहीं इसलिये तो लोक -संज्ञा के अनुसरण का भगवान ने निषेध किया है ! सिर्फ उसी बात का अनुसरण करना श्रेयस्कर है, जिससे आत्महित और लोकहित दोनों सम्भव हों । जो आत्महित अथवा लोकहित की व्याख्या से ही अनभिज्ञ हैं, उन्हें अवश्य यह अप्रिय लगेगा! लेकिन केवल मुट्ठीभर लोगों के लिए आत्महित का उपदेश बदल नहीं सकते।
__ अलबत्ता प्राणी मात्र की रुचि आत्मोन्मुख बनाने के प्रयत्न अवश्य करने चाहिए और उसके लिए लोकरुचि का ज्ञान होना जरूरी है। यह ज्ञान प्राप्त करने में लोकसंज्ञा का अनुसरण नहीं है। ठीक उसी तरह कभी-कभार श्री जिनवचन की निंदा के निवारण हेतु लोकाभिप्राय का अनुसरण किया जाए तो उसमें लोकसंज्ञा का सवाल नहीं उठता । प्रसंगोपात संयम-रक्षा एवं आत्मरक्षा हेतु लोकअभिप्राय का आधार लिया जाए तो वह लोकसंज्ञा नहीं कहलाती । लेकिन प्रवचन, संयम और आत्मा की विस्मृति कर लोकरंजनार्थ, लोक-प्रशंसा प्राप्त करने हेतु लोकरूचि का अनुसरण किया जाए तो वह लोकसंज्ञा है।
लोक -अभिरूचि का अनुसरण करनेवाले कई मिथ्यामतों का विश्व में उदय होता है और कालान्तर से अस्त भी । लेकिन उनके मत के अनुसरण से मोक्ष-प्राप्ति कदापि सम्भव नहीं ।
श्रेयोऽर्थिनो हि भूयांसो लोके लोकोत्तरे न च ! स्तोका हि रत्नवणिजः स्तोकाश्च स्वात्मसाधका ॥२३॥५॥ अर्थ : वास्तव में देखा जाए तो लोक-मार्ग और लोकोत्तर-मार्ग में