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________________ ३३२ ज्ञानसार 'मिथ्यापंथ' कहा गया है। मिथ्यादृष्टि से वास्तविक विश्व-दर्शन नहीं होता । सब कुछ गलत-सलत दिखायी देता है । जो उसे दिखता है, वह सच मानता है । विश्व में ऐसे कई मत और संप्रदाय हैं और उनके अनुयायियों की संख्या भी कम नहीं है। मतलब विभिन्न मतों के विविध अनुयायी दुनिया में अत्र-तत्र फैले हुए हैं। __यदि किसी की यह मान्यता हो कि 'बहुत लोग जिस मत का अनुसरण करते हैं, वह सच्चा है ।' तो गलत बात है । क्योंकि सच्चाई का अनुसरण करनेवाले लोगों का प्रमाण प्रायः अल्प होता है । जबकि असत्य और अवास्तविकता का अनुसरण करनेवाले असंख्य मिल जाएँगे । सत्य और वास्तविक मार्ग का अनुगमन करने की शक्ति बहुत कम लोगों में पायी जाती है। अतः अगर यह मान लिया जाए कि 'बहुमत जो करता है, उसे हमें भी करना चाहिए ।' तो वह सत्य होगा या असत्य ? विश्व के ज्यादातर जीवों को क्या पसंद है, बृहत् समाज की अभिरुचि और अभिलाषा क्या है ?' इस बात को परिलक्षित कर जो लोग धर्म के सिद्धान्त और मत प्रवर्तन करते हैं, ऐसे लोग सत्य से दूर भागते हैं । वे सच्चे हो ही नहीं सकते । आमतौर से सामान्य जीवों को भोगपभोग में रुचि होती है। उन्हें हिंसा, झूठ, चोरी, दुराचार व्यभिचार और परिग्रह में दिलचस्पी होती है । वे गीत-संगीत सुनना, सुंदर रूप देखना, प्रिय रस का सेवन करना, गन्ध-सुगन्ध का आस्वाद लेना और मुलायम शरीर-स्पर्श करना पसंद करते हैं । यदि तुम उनकी सुप्त इच्छा-अभिलाषा और कामना पूर्ण करने की अनुमति दो, एकाध आकर्षक जाल उन पर फेंक दो और उसे धर्म की संज्ञा दे दो, तो वे उसे खुशी-खुशी स्वीकार लेंगे। ऐसा तथाकथित धर्म अथवा सिद्धान्त विश्व के बहुसंख्य जीव सोत्साह ग्रहण कर अनुयायी बन जाएगे । लेकिन प्रश्न यह है कि इससे क्या आत्म-कल्याण सम्भव है ? ऐसा धर्म जीवों को दुःखों से मुक्त कर सकेगा ? क्या ऐसा धर्म तुम्हें मोक्ष का सुख प्रदान कर सकेगा? जो दुर्गति में जाते जीवों को बचा न सके, वह भला धर्म कैसा ? आत्मा पर रहे कर्मों के बन्धनों को छिन्न-भिन्न न कर सके उसे धर्म कैसे कहा जाय? विश्व का बृहत् मानव-समाज अज्ञानी ही होता है। भगवान महावीर के समय में
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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