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________________ लोकसंज्ञा-त्याग ३३१ रहे, वह किसीके बहकाव में न आयें । वह सदा-सर्वदा जिनेश्वर भगवान द्वारा निरूपित मार्ग का ही निष्ठापूर्वक अवलम्बन करता रहे । भगवन्त की वाणी और सिद्धान्त से बढ़कर अपने सिद्धान्त और जीवन-दर्शन को महत्त्व न दें ! वह लोकप्रवाह के तीव्रवेग के बीच रह, जीवों की अज्ञानता को मिटाने का प्रयत्न करें, उन्हें मोह-व्यामोह के जाल से दूर रखने की कोशिश करें । उन्हें सत्य ऐसे मोक्षमार्ग की ओर प्रेरित करने का पुरुषार्थ करें । मुनि तो राजहंस है । वह सिर्फ मोती ही चुगता है । घास उसका खाद्य नहीं और कीचड वह नहीं उछालता । घास खाते और कीचड में सने जीव के लिए उसके मन में करुणा और दयार्द्रता उभर आये ! उन्हें मुक्ति दिलाने का प्रयत्न करे, ना कि स्वयं उनमें एकरुप हो जाएँ । अज्ञानियों की बातों में आकर उनके अविवेकपूर्ण मत और मान्यताओं को स्वीकृति देने की बुरी आदत से अपने को बाल-बाल बचाएँ । तभी मुनिजीवन की मर्यादा और परम्परा में रह मोक्ष-मार्ग की आराधना में आगे बढ सकेगा। लोक-संज्ञा के परित्याग हेतु उसमें निःस्पृहता, निडरता और निर्भयता होना परमावश्यक है और इसके मूल में रही ज्ञानदृष्टि होना इससे भी ज्यादा आवश्यक है। लोकमालम्ब्य कर्तव्यं कृतं बहुभिरेव चेत् ! तथा मिथ्यावशां धर्मो न त्याज्यः स्यात् कदाचन ॥२३॥४॥ अर्थ : यदि लोकावलम्बन के आधार से बहुसंख्य मनुष्यों द्वारा की जाती क्रिया करने योग्य हो तो फिर मिथ्यादृष्टि का धर्म कदापि त्याग करने योग्य नहीं है। विवेचन : जिन की दृष्टि स्वच्छ न हो, जिन की दृष्टि निराग्रही न हो, जिनके पास 'केवल ज्ञान' का प्रकाश न हो, जिनके राग-द्वेषादि बन्धन अभी टूटे न हों, ऐसे व्यक्ति-विशेष ने ही अपनी बुद्धिमत्ता के बल पर जो मिले उन्हें . साथ लेकर विभिन्न मतों और पंथों की स्थापना की है। उन्हें 'मिथ्यामत' अथवा
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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