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लोकसंज्ञा-त्याग
३२९ के व्यामोह में जरा भी फँस गये तो तुम्हारे भव्य और उदात्त आदर्शो की कब्र खुदते देर नहीं लगेगी । अतः सदैव सावधान रह सद्धर्म की आराधना करनी चाहिए।
लोकसंज्ञामहानद्यामनृस्त्रोतोऽनुगा न के। प्रतिस्त्रोतोऽनुगस्त्वेको राजहंसो महामुनिः ॥२३॥३॥
अर्थ : लोकसंज्ञा रुपी महानदी में लोक-प्रवाह का अनुसरण करनेवाले भला कौन नहीं हैं ? प्रवाह-विरुद्ध चलनेवाला राजहंस जैसे मात्र मुनीश्वर ही हैं।
विवेचन : कोई एक बडी नदी है । गंगा, यमुना, गोदावरी, नर्मदा, ब्रह्मपुत्रा से भी बडी !
जिस दिशा में नदी बहती है उसके प्रवाह में अनुकूल दिशा में सभी प्रवाहित होते हैं, प्रयास करते हैं ! लेकिन प्रवाह विरुद्ध प्रतिकूल दिशा में कोई प्रवास नहीं कर सकता । उफनते, विद्युतवेग से आगे बढ़ते प्रवाह की प्रतिकूल दिशा में तैरना बच्चों का खेल नहीं हैं !
____लोक-संज्ञा रूपी नदी के प्रवाह में बहना, प्रवास करना कोई बड़ी बात नहीं हैं । खाना-पीना, ओढ़ना-पहनना, विकथाएँ करना, परिग्रह इकट्ठा करना, भोगोपभोग का आनन्द लूटना, गगनचुम्बी भवन निर्माण करना और कीमती वाहन रखना, पुत्र-पत्नी और परिवार में खोये रहना, तन-को साफ-सुथरा रखना, सजानासँवारना, वस्त्राभूषण धारण करना... आदि समस्त क्रिया सहज स्वभाविक हैं । इसमें कोई विशेषता नहीं और ना ही आश्चर्य करने जैसी बात है।
अज्ञान, मोह और द्वेष में फसी दुनिया के बुद्धिमान कहलाते विद्वान् लोग, लौकिक आदर्श और परम्पराएँ साथ ही विवेकहीन रीति-रिवाज के बोझ को ढोते फिरते हैं ! मुनि को चाहिए कि वह इन आदर्श, पद्धति, परम्परा और रीति-रिवाज के चंगुल में भूलकर भी न फँसे !
लोकप्रवाह द्वारा मान्य कुछ मत निम्नानुसार हैं :