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________________ ३२८ ज्ञानसार मन में भी लोक-प्रशंसा और लोकाभिनन्दन पाने की तीव्र लालसा पैदा होती है! सद्धर्म-प्राप्ति से, सद्धर्म की आराधना से तुम्हें तनिक भी संतोष, आनन्द और तृप्ति नहीं होती। तुम तपश्चर्या करते हो । लेकिन जानते हो कि तप सद्धर्म ही है ! क्या तुम तपश्चर्या के माध्यम से लोक-प्रशंसा के इच्छुक नहीं हैं न? तुम अपनी तपश्चर्या के विज्ञापन द्वार 'लोग मेरी प्रशंसा करेंगे।' भावना नहीं रखते हो न ? तुम दान देते हो ! दान सद्धर्म है । तुम दान के बल पर लोक-प्रशंसा पाने की चाह नहीं रखते हो न? दान देकर मन ही मन हरखाते हैं ? नहीं, तुम्हारे दान की दूसरे लोग प्रशंसा करते हैं, तब ही सुख होता है न ? ज्ञानप्राप्ति से असीम आनन्द मिलता है क्या ? दूसरे लोग जब तुम्हें ज्ञानी विद्वान कहें, तब ही आनन्दित होते हैं न ? . ब्रह्मचर्यपालन से प्रसन्नता मिलती है क्या ? दूसरे तुम्हें ब्रह्मचारी कहकर सम्बोधित करें, तब ही प्रसन्न होते हो न ? यदि सद्धर्म के माध्यम से तुम लोक-प्रशंसा पाना चाहते हो, तब चिंतामणि-रत्न के बदले बेर खरीदनेवाले उस गडरिये से अधिक बुद्धिशाली कैसे हो सकते हैं ? हाँ, वह बात सम्भव है कि तुम सद्धर्म से लोक-प्रशंसा पाना नहीं चाहते, फिर भी तुम्हारे शुभ कर्मों के कारण लोग-वाह-वाह किये बिना नहीं अघाते, उसमें तुम्हारा कोई अपराध नहीं । तदुपरांत भी, तुम्हें यह आदर्श तो बनाये रखना है कि 'यह प्रशंसा-स्तुति सिर्फ पुण्य जन्य है।' इससे खुशी नहीं होना है। क्योंकि पुण्य का प्रभाव खत्म होते ही प्रशंसक निंदक बन जायेंगे । यदि प्रशंसा से फूल जाओगे तो निंदा से दुःखी होना पडेगा । तुम सद्धर्म की मन-वचन काया से आराधना करते हो, तुम्हें लोकप्रशंसा नहीं मिलती, मान-सन्मान नहीं मिलता, इससे निराश होने की आवश्यकता नहीं। हमेशा याद रखो सद्धर्म का फल लोक-प्रशंसा नहीं है। भूल कर भी कभी अन्य प्राणियों से अपने सद्धर्म की कदर करवाने की भावना नहीं रखना । क्योंकि सद्धर्म की आराधना से तुम्हें अपनी आत्मा को निःस्पृह महात्मा बनाना है। कर्म-बन्धनों को छिन्न-भिन्न करना है। आत्मा को परमात्मा बनाना है । यदि लोक-प्रशंसा
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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