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________________ लोकसंज्ञा-त्याग ३२७ पत्थर पसन्द आ गया। उसने उसे बकरी के गले में बाँध दिया ! शाम को गडरिया गाँव लौटा ! गाँव के बाहर कोई एक आदमी बेर बेच रहा था । पके और रसीले बेर देखकर अनायास उसके मुँह में पानी भर आया ।। उसने उसके पास जाकर कहा : "दो-चार बेर मुझे भी दे दे !" 'बेर यों मुफ्त में नहीं मिलते ! जेब में पैसे हैं ?' गडरिया के पास फूटी कौडी भी न थी ! वह सोच में पड़ गया ! बेर खाने थे, लेकिन पैसे कहाँ से लाये ! उसे एक उपाय सूझा ! उसने बकरी के गले में बन्धा चिंतामणि-रत्न देकर बदले में बेर खरीद लिए । बेरवाले ने चमकते पत्थर को देखा और वह भी ललचा गया। उसने कभी ऐसा पत्थर देखा न था ! उसी समय वहाँ से एक महाजन गुजरा । उनकी तेज नजर बेरवाले के हाथ में रहे चमकीले पत्थर पर पडी । वह वहीं ठिठक गया । वह जौहरी होने के कारण चिंतामणि-रत्न पहचानते उसे देर न लगी । इधर-उधर की बातों में उलझाकर उसने बेरवाले को कुछ पैसे देकर, चिंतामणि-रत्न खरीद लिया ।। धर्म देकर लोक-प्रशंसा खरीदनेवाला भी उस गडरिये जैसा ही है । जबकि धर्म चिंतामणि-रत्न से अधिक कीमती और विशेष है । वह अचिंत्य चिंतामणि है... । जीव कभी कल्पना भी न कर सके, वैसी दिव्य और अपूर्व भेंट, सद्धर्म-चिंतामणि प्रदान करता है । उक्त सद्धर्म को लोकप्रशंसा के लिये अथवा लोकरंजनार्थ देनेवाले, गडरिये से भी बढ़कर मूर्ख हैं । क्या तुम जानते हो कि तुम्हारे पास जो सद्धर्म है, वह अचिंत्य चिंतामणि है ? आखिर सद्धर्म को तुम क्या समझ बैठे हो ? जिस सद्धर्म से तुम आत्मा की अनंत संपदा और ढेर सारी सम्पत्ति प्राप्त कर सकते हो, उसे तुम लोकप्रशंसा के खातिर कोडी के मूल्य बेच रहे हो? लोग भले ही तुम्हें त्यागी, विद्वान् तपस्वी, ब्रह्मचारी, परोपकारी और बुद्धिमान कहें, लेकिन ज्ञानियों की दृष्टि में तुम मूर्ख हो। तुमने धर्म का उपयोग लोक-रंजन हेतु किया, यही तुम्हारी मूर्खता है। अरे, तुम्हारी मूर्खता की कोई हद है ? किसीको तुम सद्धर्म के द्वारा लोक-प्रशंसा पाते देखते हो, तब उससे प्रभावित हो जाते हो ? वह तुम्हें महान् प्रतीत होता है और खुद को कनिष्ट, तुच्छ और छोटा समझते हो ! फलतः तुम्हारे
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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