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ज्ञानसार
प्रसन्न करने का प्रयत्न करूँगा, ना कि दुनिया के लोगों को ! सामान्य जीवों को प्रसन्न करने का मेरा प्रयोजन ही क्या है ?"
“संसार की विषम पर्वतमालाओं को लांघकर मैं छठे गुणस्थान पर पहुँचा हूँ ! मैं लोकोत्तर मार्ग में स्थित हूँ, फिर भला लोक-संज्ञा से प्रीति क्यों रखूँ ? क्योंकि लोक-संज्ञा में दुबारा संसार के विषम पहाड़ों पर चढ़ाई करना पड़ता है। अनेकविध मानसिक विषमताएँ उस मार्ग में अवरोध उत्पन्न करती हैं । इसके बजाय मैं लोकोत्तर मार्ग के आदर्शों का ही अवलम्बन करूँगा । उन आदर्शों के पीछे मेरे मन, वचन, काया की समस्त शक्ति लगा दूँगा । मुझे लोगों से कोई मतलब नहीं ! वे दिन-रात वैषयिक सुख में आकण्ठ डूबे रहते हैं, जबकि मुझे पूर्णतया निष्काम योगी बनना है । संसार के जीव, जड सम्पत्ति के माध्यम से अपने वैभव और महत्ता का मिथ्या प्रदर्शन करते हैं, जबकि मुझे सच्चे दिल से ज्ञान, दर्शन - चारित्र की अनूठी संपदा से आत्मोन्नति की साधना करना है। लोक बहिर्दृष्टि होते हैं, जबकि मुझे ज्ञानदृष्टि से अपना विकास करना है । जीव अज्ञान और अशान्ति की ओर अन्धी दौड लगा रहे हैं । जबकि मुझे केवलज्ञान की और निरंतर गतिशील होना है । ऐसी स्थिति में जीव और मुझ में साम्य कैसा ? मैं तो अपना छठा गुण - स्थान ही कायम रखूँगा और सातवें ... आठवें गुणस्थान पर पहुँचने के लिए प्रयत्न करता रहूँगा । अब पीछेहठ नहीं ! किसी कीमत पर और किसी हालत में भी पीछेहठ नहीं ! लोक-संज्ञा में मैं अपना पतन कदापि नहीं होने दूँगा ।
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यथा चिंतामणि दत्ते बठरो बदरीफलैः ।
हा जहाति सद्धर्मं तथैव जनरंजनैः ॥२३॥२॥
अर्थ : जिस तरह कोई मूर्ख वेर के बदले में चिन्तामणि रत्न देता है, ठीक उसी तरह कोई मूढ लोक- रंजनार्थ अपने धर्म को तज देता है ।
विवेचन : एक था गडरिया ।
वह प्रतिदिन ढोर चराने जंगल में जाता था ।
अचानक एक दिन उसे चिन्तामणि - रत्न मिल गया । उसे वह रंगबिरंगी