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________________ ज्ञानसार __ अर्थ : जिन्होंने परवस्तु में अपनत्व की बुद्धि से व्याकुलता प्राप्त की है, वैसे राजा अल्पता का अनुभव करनेवाले हैं, जबकि आत्मा में ही अपनत्व के सुख से पूर्ण आत्मा को, इन्द्र से भी न्यूनता नहीं है। विवेचन : बाह्य विषय तुम्हें लाख मिल जायेंगे, लेकिन इससे तुम्हें संतोष नहीं होगा । तुम्हें तृप्ति नहीं मिलेगी । वे तुम्हें प्रायः कम ही लगेंगे । जो पदार्थ तुम्हारे नहीं हैं, ना ही तुम्हारी आत्मा से उपजे हैं, बल्कि पराये हैं, दूसरों से उधार लिये हुए हैं, कर्मोदय के कारण मिले हैं, तिस पर भी मनुष्य जब उसके मोह में बावरा बन : 'ये मेरे हैं । यह परिवार मेरा है । धन-धान्यादि सम्पत्ति मेरी है। मैं ही इसका एकमात्र मालिक हूँ।" कहते हुए सदैव लालायित, ललचाया रहता है, तब उसमें एक प्रकार की अधीरता, विह्वलता आ जाती है और यही विह्वलता उसमें विपर्यास की भावना पैदा करती है । 'सावन के अन्धे को सर्वत्र हरा ही हरा नज़र आता है,' इस कहावत के अनुसार विपर्यस्तदृष्टि मनुष्य में मोह के बीज बोती है । फल यह होता है कि उसके पास जो कुछ होता है, वह कम नजर आता है और अधिक पाने की तृष्णावश वह नानाविध हरकतें करता रहता है । रहने के लिये एक घर है, लेकिन कम लगेगा और दूसरा पाने की स्पृहा जगेगी । धन-धान्यादि सम्पत्ति भरपूर होने पर भी उससे अधिक पाने का ममत्व पैदा होगा । मसलन, जो उसके पास है, उससे संतोष नहीं, शान्ति नहीं, सुख नहीं और समाधान भी नहीं । नित नया पाने की विह्वलता आग की तरह बढ़ती ही जाएगी । फलतः उसका सारा जीवन शोक-संताप और अतृप्ति की चिन्ता में ही नष्ट हो जाएगा । परिणाम यह होगा कि लाखों शुभ कर्म और पुण्योदय से प्राप्त मानव जीवन तीव्र लालसा में, स्पृहा में मटियामेट हो जाएगा। जो आत्मा का है, यानी हमारा अपना है, उसी के प्रति ममत्वभाव पैदा कर हमें आत्म-निरीक्षण करना चाहिए । 'यह ज्ञान, बुद्धि मेरी है। मेरा चारित्र है। मेरी अपनी श्रद्धा है । क्षमा, विनय, विवेक, नम्रता एवं सरलता आदि सब मेरे अपने हैं । मैं इसका एक मात्र मालिक हूँ ।' ऐसी भावना का प्रादुर्भाव होते ही तुम्हारा मन अलौकिक पूर्णानन्द से सराबोर होकर एक नये दृष्टिकोण/नवसर्जन की राह खोल देगा । तब तुम्हारे में न्यूनता का अंश भी नहीं रहेगा । तुम किसी बात की कमी महसूस नहीं करोगे । यदि तुम्हारे पास बाह्य पदार्थों का अभाव
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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