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________________ पूर्णता ११ होगा, फिर भी तुम न्यूनता का अनुभव नहीं करोगे । ऐसी परिस्थिति में अगर तुम्हारे सामने एकाध राजा-महाराजा अथवा सकल ऋद्धि-सिद्ध से युक्त स्वयं देवेन्द्र आ जायें तो भी तुम्हें किसी बात का गम-दुख नहीं होगा। हाँ, तब तुम्हारे पूर्णानन्दस्वरूप का अनुमान कर वह स्वयं में ही शून्यता का अनुभव करे तो अलग बात है ! कृष्णे पक्षे परिक्षीणे, शुक्ले च समुदञ्चति । द्योतन्ते सकलाध्यक्षाः पूर्णानन्दविधोः कलाः ॥८ ॥ अर्थ : कृष्णपक्ष के क्षय होने पर जब शुक्लपक्ष का उदय होता है तब पूर्णानन्द रुपी चन्द्र की कला विकसित होती है । खिलती है और सारी सृष्टि प्रकाशमय बना देती है । विवेचन : यह शाश्वत् सत्य है कि कृष्णपक्ष के क्षय होते ही शुक्लपक्ष का आरम्भ होता है, उदय होता है । फलतः चन्द्रकला दिन-ब-दिन अधिक और अधिक प्रकाशित हो, विकसित होती जाती है और सारा संसार उससे आलोकित हो उठता है । चन्द्र की पूर्णकला का दर्शन कर एक प्रकार के रोमांचकारी आनन्द व अपूर्व शान्ति का अनुभव करता है । ठीक इसी तरह जब आत्मा शुक्लपक्ष में प्रवेश करती है, तब पूर्णानन्द की कला सोलह सिंगार कर उठती है। दिन-ब-दिन उसमें परिपूर्णता आती रहती है । फलत: जैसे-जैसे वह पूर्ण रूप से विकसित हो उठती है, वैसे-वैसे मिथ्यात्व के दुष्ट जाल का, राहु की शैतानी शक्ति का लोप होता रहता है । काल-चक्र की दृष्टि से यहाँ 'शुक्लपक्ष' और 'कृष्णपक्ष' की कल्पना की गयी है और अनंत पुद्गल परावर्तकाल से संसार में भटकते जीव को कृष्ण पक्ष के चन्द्र की उपमा दी गयी है । जबकि आवागमन के फेरे लगाता, जन्ममरण के चक्र में डूबता - इतराता जीव संसार परिभ्रमण के अर्ध पुद्गल परावर्तकाल से भी कम समय बाकी रखता है, उसे शुक्लपक्ष के चन्द्र की संज्ञा दी गयी है । आत्मा की चैतन्य - अवस्था पूर्णानन्द की कला से जब सुशोभित होती है, तब वह शुक्लपक्ष में प्रवेश करता है । हमारी आत्मा ने शुक्लपक्ष में प्रवेश
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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