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ज्ञानसार
क्षमादि दसविध* यतिधर्म में उन्नत रखती है । निर्दीष* भिक्षाचर्या के प्रति जागृत रखती है । महाव्रतों के पालन में अतिचारमुक्त करती है । समिति-गुप्ति के पालन में उपयोगशील बनाती है । आत्मरक्षा, संयम-रक्षा और प्रवचनरक्षा में उद्यमशील बनाती है ।
संसार के भय से प्राप्त संयम-पालन की अप्रमत्तता उपादेय है। 'संसार में मुझे भटकना पड़ेगा'-ऐसा भय आर्तध्यान नहीं, बल्कि धर्मध्यान है।
___ जब मुनि आत्मा की निर्विकल्प समाधि में लीन हो जाता है, तब संसारभय स्वयं अपना अस्तित्व उसमें विलीन कर देता है । वह अपना अस्तित्व स्वतंत्र नहीं रखता । वह मोक्ष और संसार दोनों में सदा निःस्पृह होता है । उसे न मोक्षप्राप्ति का विचार और ना ही संसारभय की अकुलाहट । .
'मोक्षे भवे च सर्वत्र निःस्पृहो मुनिसत्तमः' ...
जब ऐसी उच्च कोटि की निर्विकल्प समाधि किसी प्रकार के मानसिक विचार बिना ही प्राप्त होती है, तब संसार का भय नहीं रहता । जब तक ऐसी आत्म-दशा प्राप्त न हो जाये, तब तक संसार का भय रहमा चाहिये और मनि को भी ऐसा भय सदा-सर्वदा अपने मन में रखना चाहिए। . प्रव्रज्याग्रहण करने मात्र से ही दुर्गति पर विजयश्री प्राप्त कर ली है, ऐसी मान्यता मुनि के मन में नहीं होनी चाहिए । वह लापरवाह और निश्चिन्त न बने। यदि मुनिवर भव-भ्रमण का भय तज दें, तो
शास्त्र-स्वाध्याय में प्रमाद करेगा। विकथा (स्त्री, भोजन, देश, राजकथा) करता रहेगा। दोषित भिक्षा लाएगा। कदम-कदम पर राग-द्वेष का अनुसरण करेगा । महाव्रत-पालन में अतिचार लगाएगा ।
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