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भवोद्वेग
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समिति-गुप्ति का पालन नहीं करेगा । मान-सम्मान और कीर्ति-यश का मोह जगेगा । जन-रंजन के लिये सदैव प्रयत्नशील रहेगा । संयम-क्रिया में शिथिल बनेगा।
इस तरह अनेक प्रकार के अनिष्टों का शिकार बनेगा । अतः भव का भय... दुर्गति-पतन का भय, मुनि को होना ही चाहिए । - पूज्य उपाध्यायजी महाराज ने तो संसार को सिर्फ समुद्र की संज्ञा ही दी है। लेकिन 'अध्यात्म सार' में उन्होंने इसे अनेक प्रकार के रूप और उपमाओं से उल्लेखित किया है। उदाहरणार्थ : संसार एक घना वन है, भयंकर कारागृह है, वीरान श्मशान है, अन्धेरा कुँआ है आदि । इस तरह भवस्वरूप की विविध कल्पनायें कर उस पर गहरा चिन्तन-मनन करना चाहिये । संसार असार है, इसकी अनुभूति हुए बिना इसके वैषयिक सुखों की आसक्ति का पाश कभी नहीं टूटता । साथ ही, भव के प्रति रहे राग की डोर टूटे बिना भव-बन्धन तोड़ने का पुरुषार्थ सम्भव नहीं ।
लेकिन इसके लिए भवस्वरूप के चिन्तन में खो जाना चाहिये, तन्मय होना चाहिये । भवसागर के किनारे खड़े रहकर उसकी भीषणता का अनुभव करना। भव-श्मशान के एक कोने पर खड़े हो, उसकी वीरानी और भयानकता देखना । भव-कारागृह में प्रवेश कर उसकी वेदमा और यातनायें समझना । भव कूप की कगार पर खडे हो, उसकी भयंकरता को निहारना । अनायास तुम चीत्कार कर उठोगे... तुम्हारा तन-बदन पसीने से तर हो जाएगा... तुम थर-थर कांपने लगोगे और तब 'हे अरिहंत ! कृपानाथ...' पुकारते हुए महामहिम जिनेश्वर भगवन्त की शरण में चले जाओगे।