SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 346
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३२१ भवोद्वेग जीव को समताभाव से उपसर्ग सहने हैं... । उससे भवरोग तुरंत दूर हो जाते हैं । हम स्वेच्छया उपसर्ग सहन नहीं करें, लेकिन कर्म-प्रेरित उपसर्ग को भी हंसते-हंसते सह लें तो काम बन जाय । बालक आपरेशन-कक्ष में जाने से डरता है ! अपने समक्ष आपरेशन के लिए आवश्यक शस्त्र लिए डाक्टर को देख चीख पड़ता है भला, क्यों ? उसे अपने रोग की भयानकता अवगत नहीं है । वह डाक्टर को रोगनिवारक नहीं मानता। इसी तरह जीव भी बालक की तरह यदि अविकसित बुद्धिवाला होता है, तो वह उपसर्ग के साये से भी चीत्कार कर उठता है। उपसर्ग की उपकारिता से वह पूर्णतया अनभिज्ञ जो ठहरा । तात्पर्य यही है कि उपसर्ग सहने आवश्यक हैं । इससे भव का भय हमेशा के लिए दूर होता है । स्थैर्यं भवभयादेव, व्यवहारे मुनिव्रजेत् । स्वात्मारामसमाधौ तु, तदप्यन्तर्निमज्जति ॥२२॥८॥ अर्थ : व्यवहार नय से संसार के भय से ही साधु स्थिरता पाता है । परन्तु अपनी आत्म की रतिरुप समाधि-ध्यान में वह भय अपने-आप ही विलीन हो जाता है। विवेचन : संसार का भय ? क्या मुनिवर्य को संसार का भय रखना चाहिये ? क्या भय उनकी चारित्रस्थिरता की नींव है ? चार गति के परिभ्रमण स्वरूप संसार का भय मुनि को होना चाहिये । तभी वह निज चारित्र में स्थिर हो सकता है। "यदि मैं चारित्र-पालन की आराधना में प्रमाद करूँगा, तो मझे बरबस संसार की नरक और तिर्यंचादि गति में अनन्त काल तक भटकना पडेगा।" मुनि में यह भावना अवश्य होनी चाहिये । उपरोक्त भावना उसे : इच्छाकारादि समाचारी* में अप्रमत्त रखती है । ★ देखिए परिशिष्ट
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy