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________________ भवोद्वेग ३१७ सुनते ही उसका एड़ी का पसीना चोटी तक आ गया । वह आकुलव्याकुल हो उठा । 'मृत्यु' के नाम से ही वह काँप उठा । वह राजा के आगे गिडगिड़ाने लगा । “प्रभु ! मुझे फाँसी न दो" वह बोला। "लेकिन अपराधी को दण्ड देना राजा का कर्तव्य है ।" "प्रभो ! जो दण्ड देता है, वह क्षमा भी कर सकता है।" राजा ने कुछ सोचते हुए कहा : “एक शर्त पर तुम्हें क्षमा कर सकता ___"एक नहीं, मुझे, सौ शर्ते मंजूर हैं लेकिन फाँसी मंजूर नहीं ।" उसने बेताब होकर कहा । "तेल से लबालब भरा पात्र हाथ में लिये नगर की हाट-हवेली और बजारों की प्रदक्षिणा करते हुए राजमहल में सकुशल पहुँचना होगा । यदि मार्ग में कहीं तेल की एक बूंद भी गिर गयी अथवा तेल-पात्र तनिक भी छलक गया तो मृत्युदण्ड से तुम्हें कोई बचा नहीं पाएगा । बोलो स्वीकार है ?" । ... - उसने स्वीकार किया। राज-परिषद् समाप्त होने पर वह अपने आवास गया। उसके साथ राज कर्मचारी भी थे। इधर राजा ने हाट-हवेलियाँ और बजार सजाने का आदेश दिया। निर्धारित मार्ग पर रुपरंग की अंबार-सुन्दरियों को तैनात कर दिया । कलाकारों को अपनी कला सरे-आम प्रदर्शित करने की आज्ञायें जारी की। सारे नगर का नजारा ही बदल गया । निर्धारित समय पर वह लबालब भरा तैल-पात्र लिये अपने आवास से निकला । राज-कर्मचारी भी उसके साथ ही थे। वह हाट-हवेली और बाजार से गुजरता है, लेकिन उसका सारा ध्यान तैल-पात्र के अतिरिक्त कहीं नहीं । दुकानों की सजावट उसका ध्यानाकर्षण नहीं करती । नाट्य-प्रसंग उसके मनको ललचाने में असफल बनते हैं । रूपसियों का देह-लालित्य और नेत्र-कटाक्ष उसे कतइ विचलित नहीं कर पाते । उसकी दृष्टि केवल अपने तैल-पात्र पर ही है। इस तरह वह सकुशल राजमहल पहुँचता है। महाराजा को विनीत भाव से वन्दन कर एक ओर नतमस्तक खड़ा हो जाता है। "तैल की बूंद तो कहीं गिरी नहीं ना ?"
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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