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________________ ३१६ ज्ञानसार क्योंकि उन्हें वहाँ अपनी सुरक्षा, निर्भयता और सलामती का विश्वास न रहा । इसी तरह जब भवसागर से हिजरत करने की इच्छा पैदा हो जाए, तब माया-ममता के बन्धन टूटते एक क्षण भी न लगेगा । इसलिये यहाँ भवसागर की भीषणता का यथार्थ वर्णन किया गया है । अतः शान्ति से अकेले में इस पर चिन्तन करना, एकाग्र बनकर प्रतिदिन इस पर विचार करना । जब तुम्हारी आत्मा भव-सागर की भयानकता और विषमता से भयभीत हो उठे, तब उसे पार करने की तीव्र लालसा जाग पडेगी और तुम मन, वचन, काया से पार होने के लिए उद्यत हो जाओगे । ऐसी स्थिति में विश्व की कोई शक्ति तुम्हें भवसागर पार करते रोक न पाएगी। तैलपात्रधरो यद्वत्, राधावेधोद्यतो यथा । क्रियास्वनन्यचित्तः स्याद्, भवभीतस्तथा मुनिः ॥२२॥६॥ अर्थ : जिस तरह तैल-पात्र धारण करनेवाला और राधावेध साधनेवाला, अपनी क्रिया में अनन्य एकाग्र चित्त होता है । ठीक उसी तरह संसार-सागर से भयभीत साधु अपनी चारित्र-क्रिया में एकाग्रचित्त होता है । विवेचन : किसी एक नगर का एक नागरिक ! उसकी यह दृढ़ मान्यता थी कि लाख प्रयत्नों के बावजूद भी मन नियंत्रित नहीं होता । अतः वह प्रायः मनकी अस्थिर वृत्ति और चंचलता का सर्वत्र डंका पीटता रहता था । अपनी मान्यता से विपरीत मन्तव्य रखनेवाले के साथ वाद-विवाद करता रहता । वह मुनियों के साथ भी चर्चा करता रहता । न किसी की सुनता, ना ही समझने की कोशिश करता । मनकी स्थिरता को मानने के लिये कतई तैयार नहीं। वायु वेग से नगर में बात फैल गयी। राजा ने भी सुनी, लेकिन राजा विचलित न हुआ । वह स्वयं दर्शन-शास्त्र का ज्ञाता और विद्वान् था । मनको नियंत्रित करने की विद्या से वह भली-भाँति परिचित था। उसने मन ही मन उसे सबक सिखाने का निश्चय किया। पानी की तरह समय बीतता गया। एक बार भाई साहब राजा के जाल में फँस गये । राजा ने उसे फाँसी की सजा सुना दी।
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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