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________________ भवोद्वेग की यह परंपरा और गर्जन-तर्जन अबाधित रूप से चल रहा है । अविश्वास और शंका-कुशंका के वातावरण में संसार-समुद्र के प्रवासी का दम घुट रहा है । मुसाफिर : संसार-सागर में असंख्य आत्मायें विद्यमान हैं । लेकिन महासागर के सीने पर लहराती इतराती नौकाओं में प्रवास करनेवाला एक मात्र प्राणी मनुष्य है । ये लोग संसार-सागर का प्रवास खेते हुए बुरी परिस्थिति के फंदे में फँस जाते हैं और परिणाम स्वरूप जाने-अनजाने घोर संकट में पड़ जाते हैं । उनमें से बड़ी संख्या में तो पर्वतमालाओं से टकरा कर समुद्र की अतल अन्त गहराई में खो जाते हैं । बचे-खुचे लोग सफर जारी रखते हुए, मध्य भाग में प्रज्वलित वडवानल के कोप-भाजन बन मर जाते हैं... । कुछ तो आकाश में सतत कौंधती बिजली के गिरने से खत्म हो जाते हैं... । कई तूफान की बिभीषिका में अपना सर्वस्व खो बैठते हैं ! शेष रहे थोड़े से मुसाफिर, जिन्हें भवसागर का यथार्थ ज्ञान है और जो ज्ञान समृद्ध धीर-गंभीर महापुरुषों का अनुसरण करते हैं, बच पाते हैं... भव-सागर को पार करने में सफल हो जाते हैं । ज्ञानी पुरुषों की दृष्टि में प्रस्तुत संसार-सागर अनन्त विषमताओं से भरा अत्यन्त दारुण है। जब तक वे यहाँ सदेह होते हैं, तब तक अधिकाधिक उद्विग्न रहते हैं। किसी भी सुख के प्रति वे आकर्षित नहीं होते, ना ही स्वयं ललचाते हैं। उनका सदा-सर्वदा सिर्फ एक ही लक्ष्य होता है; 'कब इस भवसागर से पार उतरूं' ! उनके सारे प्रयत्न और प्रयास भवसागर से पार उतरने के लिये होते हैं, मुक्ति के होते हैं। मन, वचन, काया से वे संतरण हेतु ही प्रयत्नशील रहते हैं। हमें भी आत्म-संशोधन करना चाहिये । सोचना चाहिये कि यह भवसागर हमारे ठहरने के काबिल है क्या ? हमें यहाँ स्थिर होना चाहिये क्या ? कहीं भी कोई सुगम पथ है क्या ? कहीं निर्भयता है ? अशान्तिरहित असीम सुख है ? नहीं है। जो है वह सिर्फ मृगजल है । तो भव सागर में स्थिर होने का सवाल ही कहाँ उठता है ? जहाँ स्वस्थता नहीं, शान्ति नहीं, सुख नहीं और निर्भयता नहीं, वहाँ रहने की कल्पना से ही हृदय काँप उठता है ? जब देश का विभाजन हुआ और भारत व पाकिस्तान दो राष्ट्र बने, तब पाकिस्तान में हिन्दु परिवारों की स्थिति कैसी थी? उनका जीवन कैसा था? वहाँ से लाखों हिन्दू परिवार हिजरत कर भारत चले आये । जान हथेली पर रखकर सुख शान्ति और संपदा गँवा कर।
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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