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________________ ३१८ ज्ञानसार "जी नहीं !" 1 राजा ने राजकर्मचारियों की ओर प्रश्नसूचक दृष्टि से देखा । उन्होंने भी मौन रहकर उसके कथन की पुष्टि की। तब राजा ने कहा : "लेकिन यह कैसे सम्भव है ? सरासर असम्भव बात है । आज तक विश्व में जो बनी नहीं, ऐसी अनहोनी बात है । मन चंचल है । वह इधर-उधर देखे बिना रह ही नहीं सकता और इधर-उधर देखने भर की देर है कि तैल- पात्र छलके बिना रहेगा नहीं ।" "राजन् ! मैं सच कहता हूँ । मेरा मन सिवाय तैल - पात्र के कहीं नहीं गया... दूसरा कोई विचार दिमाग में आया ही नहीं ।" उसने मंद, लेकिन दृढ़ स्वर में कहा । “क्या मन किसी एक वस्तु में एकाग्र बन सकता है ? " "क्यों नहीं ? यह शत-प्रतिशत सम्भव है । मेरे सिर पर जब साक्षात् मृत्यु झूल रही थी, तब मन भला एकाग्र क्यों नहीं होता ?" "तब फिर जो साधु / मुनि और साधक निरन्तर मृत्यु के भय को अपनी आँखों के आगे साक्षात् देखते हों, उनका मन चारित्र में स्थिर हो सकता है अथवा नहीं ?" तबसे वह मनकी स्थिरता का उपाय आत्मसात् कर गया । अनन्त जन्ममृत्यु के भय से साधु अपनी चारित्र- क्रिया में निरन्तर एकाग्रचित्त होता है । हाँ, उसे असार संसार का भय अवश्य हो । राधावेघ साधनेवाला कैसी एकाग्रता का घनी होता है ! उसे नीचे पानी से लबालब भरे कुण्ड में देखना होता है और ऊपर स्तंभ के सिर पर निरन्तर घूमती पुतली की, कुण्ड में पडती छाया की दिशा में, निशाना ताक, उसकी एक आँख बिंधनी होती है । इसके लिये कैसा एकाग्रता चाहिये ? राजकुमारियों का पाणिग्रहण करने के इच्छुक नर- पुंगवों को ऐसे राधावेघ की कसौटी पर अपनी बुद्धि, बल और एकाग्रता की परीक्षा देनी पड़ती थी ! इसी तरह का आदेश, श्री जिनेश्वर भगवान ने शिवसुन्दरी का पाणिग्रहण करने के लिये, आवश्यक
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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