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ज्ञानसार
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तल-भाग (सतह) : संसार - समुद्र की सतह ( तल भाग) किसी मिट्टी, पत्थर अथवा कीचड़ की बनी हुई नहीं है, बल्कि वज्र की बनी हुई है । जीव की अज्ञानता वज्र से कम नहीं । यह सारा संसार अज्ञानता की सतह पर टिका हुआ है । मतलब संसार का मूल अज्ञानता ही है ।
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पर्वतमालायें : समुद्र में स्थान-स्थान पर छोटे-बड़े पर्वत, कहीं पर पूर्ण रूप से तो कहीं-कहीं पर आधे पानी में डूबे हुए रहते हैं । नाविक दल हमेशा इन समुद्री टीलों और चट्टानों से सावधान रहता है । जबकि संसार - समुद्र में तो ऐसी पर्वतमालाएँ सर्वत्र बिखरी पड़ी हैं । जानते हो, ये पर्वत कौन-से हैं ? संकट, आपत्ति - विपत्ति, आधि-व्याधि, दुःख, अशान्ति... ये सब सांसारिक पर्वत ही तो हैं । एक दो नहीं, बल्कि पूरी हारमाला / पर्वतमाला ! अरावली की पर्वतमालायें तुमने देखी हैं ? सह्यांद्रि की पर्वत श्रृंखलाओं के कभी दर्शन किये हैं ? इनसे भी ये पर्वतमालायें अधिकाधिक दुर्गम और विकट हैं, जो संसार - समुद्र में फैली हुई हैं । कहीं-कहीं वे पूरी तरह पानी के नीचे हैं, जो सिधे-सादे नाविक के ध्यान में कभी नहीं आती । यदि इनसे तुम्हारी जीवन- नौका टकरा जाए, तो चकनाचूर होते एक क्षण का भी विलम्ब नहीं !
मार्ग : ऐसे संसार-समुद्र का मार्ग क्या सरल होता है ? नहीं, कतई नहीं। ऐसे ऊबड़-खाबड़, दुर्गम मार्ग पर चलते हुए कितनी सावधानी बरतनी पड़ेगी, कितनी समझदारी और संतुलित - वृत्ति का अवलम्बन करना होगा ? हमारी तनिक लापरवाही, चंचलता, निद्रा, आलस्य अथवा विनोद सर्वनाश को न्यौता देते देर नहीं करेंगे । ऐसे विकट समय में किसी अनुभवी परिपक्व मार्गदर्शक की शरण ही लेनी होगी । उसका अनुसरण करना पड़ेगा या नहीं ? सुयोग्य सुकानी के नेतृत्व पर विश्वास करना ही होगा तभी हम सही-सलामत / सुरक्षित अपनी मंजिल तक पहुँच पायेंगे ।
प्रचंड वायु : तृष्णा... पाँच इन्द्रियों के विषयों की कामना की प्रचंड वायु महासागर में पूरी शक्ति के साथ ताण्डव नृत्य कर रही है । तृष्णा ... कितनी तृष्णा ! उसकी भी कोई हद होती है । मारे तृष्णा के जीव इधर-उधर निरुद्देश्य भटक रहा है । विषय सुख की लालसा के वशीभूत हो जीव कैसा घिर गया है ? जानते हो, यह प्रचंड वायु कहाँ से पैदा होती है ? पाताल - कलशों से ।
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