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________________ ३०८ ज्ञानसार चाहिये ! उसे छिन्न- भिन्न नहीं होने देने के लिए कर्म विपाक का चिंतनअनुचिंतन सदा-सर्वदा शुरु रहना चाहिए। न जाने पूज्य उपाध्यायजी महाराज ने कैसी अलौकिक व्यवस्था का मार्गदर्शन किया है ! संसार में रही विषमताओं का समाधान 'कर्म - विपाक' के विज्ञान द्वारा न किया जाएँ तो ? तब क्या होगा ? संसार के जीवों के प्रति राग और द्वेष की भावना तीव्र बनेगी । रागद्वेष के कारण अनेकविध अनिष्ट पैदा होंगे। हिंसा, झूठ, चोरी, दुराचार, परिग्रह, क्रोध - मान, माया, लोभादि असंख्य दोषों का प्रादुर्भाव होगा । फलतः जीवों का जीवन जीवों के हाथ ही असुरक्षित बन जाते देर नहीं लगेगी । परस्पर शंकाकुशंका, घृणा, द्वेष और वैर भावना में, क्रमशः बढोतरी होगी । परिणाम स्वरुप विषमता बढेगी । ऐसी स्थिति में मोक्ष मार्ग की आराधना सम्भव नहीं । आज भी हम देखते हैं कि जो प्रस्तुत कर्म - विज्ञान से अनभिज्ञ हैं, उनकी क्या हालत है ? वे अपनी जिंदगी बदतर स्थिति में गुजार रहे हैं . वहाँ अशान्ति, चिंता और दुःख का साम्राज्य छाया हुआ है । न जाने आत्मा-परमात्मा और धर्मध्यान से वे कितने दूर - सुदूर निकल गये हैं । तब आप तो मुनिराज हैं ! मोक्ष मार्ग के पथिक बन आपको कर्म-बन्धन तोडने हैं और शुद्ध बुद्ध अवस्था प्राप्त करनी है | अतः आपको 'कर्म विज्ञान' का मनन कर उसे पचाना चाहिए । उसके आधार पर समभाव के धनी बनना चाहिए । फलतः आप ज्ञानानन्द - पराग के भोगी भ्रमर बन जायेंगे ! ध्यान रहे, जहाँ भी समभाव खण्डित होता दृष्टि गोचर हो, शीघ्राति शीघ्र " कर्म विपाक" का आलम्बन ग्रहण कर लेना ।
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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