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________________ २२. भवोद्वेग हे भव-परिभ्रमण के रसिक जीव ! तनिक इस संसार-समुद्र की ओर तो दृष्टिपात कर । इसकी बिभीषिका और भीषणता का तो दर्शन कर । इसकी निःसारता एवं भयानकता का तो ख्याल कर । क्या तू यहाँ सुखी है ? शान्त है ? संतुष्ट है ? पूज्य उपाध्यायजी महाराज ने यहाँ भव-समुद्र की भयंकरता को समझाने का प्रयत्न किया है... । तुम इस अध्याय को ऊपरी तौर से पढ़ मत जाना, बल्कि पूरे गांभीर्य से पढ़कर यथायोग्य चिन्तन करना । भव-बधनों की विषमता और असारता से मुक्ति पाने हेतु जिस अदम्य उत्साह, शक्ति और जिज्ञासा की आवश्यकता है, वह सब तुम्हें प्रस्तुत अष्टक के चिन्तन मनन से नि:संदेह प्राप्त होगा । यस्य गंभीरमध्यस्याज्ञानवज्रमयं तलम् । रुद्धव्यसनशैलोधैः, पन्थानो यत्र दुर्गमाः ॥२२॥१॥ पातालकलशा यत्र भृतास्तृष्णामहानिलैः । कषायाश्चित्तसंकल्पवेलावृद्धि वितन्वते ॥२२॥२॥ स्मरौर्वाग्निवलत्यन्तर्यत्र स्नेहेन्धनः सदा । यो घोररोगशोकादिमत्स्यकच्छपसंकुलः ॥२२॥३॥ दुर्बुद्धिमत्सरद्रोहैविद्युद्वातगजितैः । यत्र संयात्रिका लोकाः, पतन्त्युत्पातसंकटे ॥२२॥४॥
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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