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कर्मविपाक-चिन्तन
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• कर्म - विपाक चिंतन
समभाव
• ज्ञानानन्द का अनुभव... !
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कर्मविपाक के चिंतन-मनन से समभाव ही प्रकट होना चाहिए । अर्थात् संसार में विद्यमान प्राणी मात्र के लिए समत्व की भावना पैदा होनी चाहिए ! किसी के प्रति द्वेष, ना ही किसी के प्रति राग । शत्रु के प्रति द्वेष नहीं, मित्र के लिए राग नहीं । कर्म कृत भावों के प्रति हर्ष और शोक नहीं होना चाहिए । यह सब कर्म-विपाक के चिंतन-मनन से ही सम्भव है । यदि हमें राग-द्वेष और हर्ष - शोक होते हैं तो समझ लेना चाहिए कि हमारा चिंतन कर्म विपाक का चिंतन नहीं बल्कि कुछ और है । हर्ष - शोक, राग-द्वेष और रति- अरति आदि भावों के लिए सिर्फ कर्मों को ही नहीं कोसना चाहिए, उसके बजाय हमें निरंतर यह विचार करना चाहए कि 'कर्म - विपाक, का चिंतन-मनन न करने से यह सब हो रहा है ।' हमें स्मरण रखना चाहिए कि कर्म - विपाक का चिंतन किये बिना राग-द्वेष और हर्ष - शोक कभी कम नहीं होंगे। अरे, मरणान्त उपसर्गों के समय भी जो महात्मा तनिक भी विचलित नहीं हुए, आखिर उसका रहस्य क्या था ?
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इसके प्रत्युत्तर में यह कहकर अपने मनका समाधान कर लेना कि 'वह सब उनके पूर्व भवों की आराधना का फल था, ' हम सबसे बड़ी भूलकर रहे हैं । उसके बजाय यह मानना - समझना चाहिए कि 'उसके मूल में उनका अपना कर्म - विपाक का चिंतन-मनन अनन्य, असाधारण था; जिसकी वजह से संतुलन खोये बिना वे समभाव में अन्त तक अटल - अचल बने रहे ।' यही विचारधारा हमें आत्मसात् कर लेनी चाहिए । जीवन में बनते प्रसंगों के समय यदि कर्मविपाक के विज्ञान का उपयोग किया जाए तो समता - समभाव में स्थिर रहना सरल बन जाएँ ।
और समभाव के बिना ज्ञानानन्द कहाँ ? ज्ञानानन्द समभाव से सम्भव है ! राग-द्वेष और हर्ष - शोक का तूफान थमते ही ज्ञान का आनन्द - आत्मानन्द प्रगट होता है । जबकि राग-द्वेष से स्फूरित आनन्द, आनन्द न होकर विषयानन्द
होता है । ज्ञानानन्द के निरंतर उपभोग के लिए समभाव की ज्योत अखण्डित रखनी
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