SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 327
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३०२ ज्ञानसार भयानकता है ! ऐसे कर्म विपाकों का सतत चिंतन मनन कर, उसके क्षयहेतु कमर कसनी चाहिए | अर्वाक् सर्वाऽपि सामग्री श्रान्तेव परितिष्ठति । विपाकः कर्मणः कार्यपर्यन्तमनुधावति ॥२१॥६॥ अर्थ : हमारे निकट रही सभी सामग्री / कारण, एकाध थके हुए प्राणी की तरह सुस्त रहती है। जबकि कर्म विपाक कार्य के अन्त तक हमारा पीछा करता है I विवेचन : कर्म विपाक का अर्थ है कर्म का परिणाम / फल ! कोई कार्य बिना किसी कारण के नहीं बनता और हर कार्य के पीछे पाँच कारण होते है : १. काल, २. स्वभाव, ३. भवितव्यता, ४. कर्म और ५. पुरुषार्थ I लेकिन इन सबमें 'कर्म' प्रधान कारण है ! कर्म - विपाक कार्य के अन्त तक हमारा पीछा नहीं छोडता, बल्कि सतत छाया की तरह साथ रहता है । शेष सभी कारण थोडा-बहुत चलकर इधर-उधर हो जाते हैं, लेकिन यह निरंतर पीछे ही लगा रहता है । कोइ किसी कार्य की भूमिका तैयार करता है, कोई कार्यारम्भ कराता है, कोई कार्य के बीच ही थक कर एक ओर हो जाता है। लेकिन कर्म कभी थकता नहीं है। जब तक कोई कार्य पैदा होता है और खत्म - ( नाश) होता है, तब तक कर्म साथ ही चलता है । इसे कभी विश्राम नहीं, विराम नहीं और आराम नहीं । व्यक्ति को जितना भय अन्य कारणों से नहीं, उतना भय कर्म का होता । कर्म-क्षय होते ही अन्य चार कारण अपने आप लोप हो जाते हैं । उन्हें दूर करने के लिए किसी प्रकार की मेहनत नहीं करनी पड़ती ! ये सब कर्म के पीछे होते हैं । इसी वजह से कर्म के अनुचिंतन और क्षय हेतु जीव को पुरुषार्थ करना होता है । कर्मक्षय हेतु कर्म ने ही मनुष्य को अनुकूल सामग्री प्रदान की है I
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy