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कर्मविपाक-चिन्तन
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जाती है और मारे आवेश के 'हे दुष्ट कर्म !' कह कर चीख पड़ते हैं ! कर्म के बन्धन तोडने के लिये वे पुकारते हैं !
ग्यारहवाँ 'उपशान्त मोह' गुणस्थान, कर्म द्वारा रचित अंतिम रक्षापंक्ति (मोर्चा) है और सदा-सर्वदा सर्व के लिए वह अपराजेय है ! जो सीधे दसवें से बारहवें गुणस्थान पर छलांग मार कर पहुँच जाते हैं, वे इसके शिकार नहीं बनते ।
'उपशान्त- मोह' का अर्थ जानते हो ? तो सुनो :
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पानी से लबालब भरा एक प्याला है । लेकिन पानी स्वच्छ नहीं है, मटियाला है ! उसमें मिट्टी, कंकर सब मिला हुआ है। तुम्हें वह पानी पीना है । जोर की प्यास लगी है। सिवाय उस पानी के कोई चारा नहीं ! तुम उसे महीन कपड़े से छान लोगे । फिर भी पानी स्वच्छ नहीं होता । तब थोडी देर के लिए प्याला नीचे रख दोगे । पानी में रही मिट्टी धीरे-धीरे नीचे बैठ जाएगी ! मैल प्याले के तह में जम जाएगा और धीरज रखोगे तो स्वच्छ पानी ऊपर तैर आएगा ! इससे यही ध्वनित होता है कि पानी में मिट्टी अवश्य है, लेकिन उपशान्त है ! ठीक उसी तरह आत्मा में मोह जरुर है, लेकिन नीचे तह जमा हुआ है ! अतः आत्मा निर्मल... मोह रहित दृष्टिगोचर होती है ! लेकिन जिस तरह प्याले को हिलाते ही तह में जमी मिट्टी और मैल ऊपर उभर आएगा और पानी दुबारा गन्दा हो जाएगा । उसी तरह उपशान्त मोहवाली आत्मा कोई दोष से आन्दोलित हुई तो मोह आत्मा में व्याप्त हो, उसे गन्दा कर मलीन बना देगा !
उपशान्त मोह में निर्भयता नहीं होती । हाँ, मोह क्षीण हो जाय, 1 अर्थात् पानी को कंकर - मिट्टी बिना का स्वच्छ बना दिया जाए, बाद में प्याले को भले ही हिलाइए, कंकर - मिट्टी के उभर आने का सवाल ही पैदा नहीं होगा ! उसी भाँति मोह का सर्वथा क्षय होने पर कोई चिंता नहीं । दुनिया का कोई निमित्त कारण उसे मोहाधीन नहीं कर सकेगा !
कर्मों की क्रूर - लीला भला कहाँ तक सम्भव है ? सिर्फ ग्यारहवें. गुणस्थान तक ! वहाँ चौदह पूर्व के ज्ञानी श्रुतकेवलियों की पराजय भी अवश्यंभावी है । अर्थात् चौदह पूर्वघर - श्रुतकेवली भी प्रमाद के वशीभूत हो, अनादिकाल तक निगोद में रहते हैं । न जाने कर्मों की यह कैसी भीषणता -