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________________ ३०० ज्ञानसार अर्थ : आश्चर्य तो इस बात का है कि उपशम-श्रेणी पर आरुढ एवं चौदह पूर्वधरों को भी दुष्ट कर्म अनंत संसार में भटकाते हैं । विवेचन : उपशम श्रेणी ! पहले... दूसरे... तीसरे... चौथे... पाँचमे... छठवें... सातवें... आठवें... नौवें... दसवें... ग्यारहवें गुणस्थान पर पहुँच जाते हैं, मोहोन्माद शान्त... प्रशान्त... उपशान्त हो गया होता है। जिस गति से मोह का प्रमाण कम होता है, उसी अनुपात में आत्मा क्रमशः उच्च गुणस्थान पर अधिष्ठित होता जाता है। क्षपकश्रेणी पर चढता जीव ग्यारहवें गुणस्थान पर कभी जाता ही नहीं ! वह सीधा दसवें गुणस्थान से छलांग मार... बारहवें गुणस्थान पर पहुँच जाता है। जहाँ मोह बिलकुल खत्म(क्षय) हो जाता है। बारहवें स्थान पर पहुँचा जीव सीधा तेरहवें गुणस्थान पर पहुँच, वीतराग बन जाता है और तब आयुष्य पूर्ण होने पर, चौदहवें स्थान पर पहुँच कर मोक्षगति पाता है। .. लेकिन ग्यारहवाँ गुणस्थानक अपनी फिसलन-वृत्ति के लिए सर्वविदित है ! इस स्थान पर मोहनीय कर्म का बोलबाला है । उसकी गिरफ्त से बड़े-बड़े वीर-महावीर बच नहीं सकते । मतलब, ग्यारहवाँ गुणस्थानक, कर्म का प्राबल्य, उसकी अजेयता और सर्वोपरिता का शक्तिशाली केन्द्र है। कोइ भी असामान्य व्यक्तित्व फिर भले ही उसे* दशपूर्वो का ज्ञान हो, वह सत्चारित्र का धनी हो, वीर्योल्लास से युक्त हो, ग्यारहवें गुण स्थान पर पहुँचते ही आनन-फानन में कर्म-चक्रव्युह में फँस जाएगा ! संसार में भटक जायेगा । कर्म को चौदह पूर्वधरों की भी शर्म नहीं, उत्तम संयम की भी कतइ लाज नहीं, ना ही उत्कृष्ट ज्ञान की परवाह ! यही तो कर्म की निर्लज्जता है ! 'कर्म' की इसी क्रूर लीला से कुपित हो, पूज्य उपाध्यायजी महाराज सहसा : 'दष्टेन कर्मणा !' कह उठते हैं ! जब बे उपशम-श्रेणी पर आरूढ और ग्यारहवें गुणस्थान पर पहुँचे महर्षि को धक्का मार कर खड्डे में गिराते हुए कर्म को देखते हैं, तब क्रोधाग्नि से उनका रोम... रोम व्याप्त हो जाता है ! भृकुटी तन ★ देखिए परिशिष्ट
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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