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________________ कर्मविपाक-चिन्तन तत्पश्चात् अभिलाषा पैदा होती है, • रति- आसक्ति का जोर बढ़ता है, • वे विषय पाने का प्रयत्न होता है, • प्रयत्न करते हुए पापाचरण भी होगा, और विषय प्राप्त होते ही जीवन में विषमता छा जायेगी । २९९ इस प्रकार की मानसिक एवं शारीरिक वेदनाओं के हम भूल कर भी शिकार न बन जाएँ, अतः उपाध्यायजी महाराज ने 'विश्व - विषमता' का सुक्ष्मावलोकन करने का आदेश दिया है । किसी व्यक्ति की उच्चता-नीचता का प्रमाण हमेशा एक-सा नहीं रहता । किसी परिवार की विशालता और भव्यता सदा एक सी नहीं रहती । शारीरिक आरोग्य हमेशा एक तरफ नहीं रहता । कला - विज्ञान सदा के लिए बराबर बना नहीं रहता ! आयुष्य किसी के धारणानुसार एक जैसा नहीं होता ! बल और शक्ति का प्रमाण एक सा नहीं रहता, ना ही आवश्यक भोग-सामग्री निरंतर प्राप्त होती है ! अरे भाई, इसीका नाम तो विषमता है ! इसका जन्म हमारे अच्छे-बुरे कर्मों से होता है, ना कि इश्वर ने विषमता भरे विश्व की रचना की है ! उन्होंने तो हमें विषमतायुक्त विश्व के दर्शन कराये हैं, हमारे सामने वैषम्य का नंगा स्वरूप खडा कर दिया है। विश्व इश्वर का सृजन नहीं, बल्कि अच्छे-बुरे कर्मों का सृजन है । जीव अपने कर्मों के अनुरूप विश्व की रचना करता है । प्रगति और पतन, आबादी और बर्बादी, सुख और दुःख, शोक और हर्ष, आनन्द और विषाद आदि सब कर्मों का उत्पादन है ! योगी और त्यागी ऐसी दुनिया से प्रीति नहीं करते ! आरूढाः प्रशमश्रेणि श्रुतकेवलिनोऽपि च ! भ्राम्यन्ते ऽनन्तसंसारमहो दुष्टेन कर्मणा ॥ २१ ॥५ ॥
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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