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कर्मविपाक-चिन्तन
तत्पश्चात् अभिलाषा पैदा होती है,
• रति- आसक्ति का जोर बढ़ता है,
• वे विषय पाने का प्रयत्न होता है,
• प्रयत्न करते हुए पापाचरण भी होगा,
और विषय प्राप्त होते ही जीवन में विषमता छा जायेगी ।
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इस प्रकार की मानसिक एवं शारीरिक वेदनाओं के हम भूल कर भी शिकार न बन जाएँ, अतः उपाध्यायजी महाराज ने 'विश्व - विषमता' का सुक्ष्मावलोकन करने का आदेश दिया है ।
किसी व्यक्ति की उच्चता-नीचता का प्रमाण हमेशा एक-सा नहीं रहता । किसी परिवार की विशालता और भव्यता सदा एक सी नहीं रहती । शारीरिक आरोग्य हमेशा एक तरफ नहीं रहता ।
कला - विज्ञान सदा के लिए बराबर बना नहीं रहता ! आयुष्य किसी के धारणानुसार एक जैसा नहीं होता ! बल और शक्ति का प्रमाण एक सा नहीं रहता, ना ही आवश्यक भोग-सामग्री निरंतर प्राप्त होती है ! अरे भाई, इसीका नाम तो विषमता है !
इसका जन्म हमारे अच्छे-बुरे कर्मों से होता है, ना कि इश्वर ने विषमता भरे विश्व की रचना की है ! उन्होंने तो हमें विषमतायुक्त विश्व के दर्शन कराये हैं, हमारे सामने वैषम्य का नंगा स्वरूप खडा कर दिया है। विश्व इश्वर का सृजन नहीं, बल्कि अच्छे-बुरे कर्मों का सृजन है । जीव अपने कर्मों के अनुरूप विश्व की रचना करता है । प्रगति और पतन, आबादी और बर्बादी, सुख और दुःख, शोक और हर्ष, आनन्द और विषाद आदि सब कर्मों का उत्पादन है !
योगी और त्यागी ऐसी दुनिया से प्रीति नहीं करते !
आरूढाः प्रशमश्रेणि श्रुतकेवलिनोऽपि च ! भ्राम्यन्ते ऽनन्तसंसारमहो दुष्टेन कर्मणा ॥ २१ ॥५ ॥