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________________ २९८ ज्ञानसार • विषमता के दर्शन से विश्व के प्रति रही प्रीति और आस्था छिन्न-भिन्न होते देर न लगेगी। • फलतः, आसक्ति का प्रमाण कम होगा ! • उससे हिंसा, झूठ, चोरी, वामाचार, बलात्कार और परिग्रह के असंख्य पाप नष्ट हो जाएंगे। • तब मोक्षमार्ग की ओर दृष्टि जायेगी । • कर्मबन्धन तोडने का पुरुषार्थ होगा । • किसी भी जीव के दुःख के तुम निमित्त नहीं बनोगे । • और तुम योगी बन जाओगे। परमादरणीय उमास्वातिजी ने अपने ग्रन्थ 'प्रशमरति' में कहा है : जातिकुलदेहविज्ञानायुर्बल-भोग-भूतिवैषम्यम् । दृष्ट्वा कथमिह विदेषां भवसंसारे रतिर्भवति ? "जाति, कुल, शरीर, विज्ञान, आयुष्य, बल एवं भोग की विषमताओं को देखते हुए, जन्म-मृत्यु रूपी संसार के प्रति भला, विद्वद्जनों का स्नेह-भाव कैसे सम्भव है ?" ___ यदि आपको अपनी जात-पात की उच्चता में खुशी होती है, कुल की महत्ता गाने में आनन्द मिलता है, स्व-शरीर को देख-देख कर हर्ष के फव्वारे फूटते हैं, अपने कला-विज्ञान का अहसास कर मन प्रफुल्लित होता है, खुद की आयु पर दृढ विश्वास है, अपने द्रव्य-बल, शरीर-बल और स्वजन-बल पर गौरव है, भोग-सुख की ललक है, तो मान लेना चाहिये कि जीवन में रही विषमताओं के सम्बन्ध में तुम पूर्णतया अनभिज्ञ हैं । तुमने विषमताओं को देखा नहीं और परखा तक नहीं ! क्योंकि जहाँ विषमता होती है वहाँ रति नहीं होती, खुशी नहीं होती। लेकिन जहाँ रति-खुशी का बोलबाला होता है वहाँ विषमता नहीं दिखती। • सांसारिक विषयों में विषमता नहीं दिखती अतः उसके प्रति अधिकाधिक आकर्षण पैदा होता है,
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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