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________________ कर्मविपाक-चिन्तन २९७ अर्थात् कभी-कभार तुम्हें 'काजी' के बहुमान से सम्बोधित कर दुनिया तुम्हें सम्मानित करती है, तो कभी 'पाजी' कहकर तुम्हारा सरेआम अपमान करती है ! कभी तुम्हारी कीर्ति-पताका सर्वत्र फहराती है तो कभी तुम्हारी कलंकगाथा दुनिया में फैल जाती है । यह सब कर्म की बाजी है । किसी ने ठीक कहा है, 'न जाना जानकी नाथे कल क्या होनेवाला है,' कामराज को कौन जानता था ? लेकिन काँग्रेसाध्यक्ष बनते ही वे भारतीय राजनीति के बेताज बादशाह बन गये और वह दिन भी आया कि जब उनको कोई जानता ही नहीं ! यह सब शुभ कर्मों के उदय और और अशुभ कर्मों के उदय का खेल है। कर्म की गति सदा निराली, अनोखी और अनुठी रही है । इसका रहस्य सिर्फ केवलज्ञानी जान सके हैं । 'कर्मन की लख लीला में लाखों हैं कंगाल । चढती - पड़ती हँसती - रोती- टेढी इसकी चाल ॥ विषमा कर्मणः सृष्टिदृष्टा करभपृष्टवत् । जात्यादिभूतिवैषभ्यात् का रतिस्तत्र योगिनः ? ॥२१॥४॥ अर्थ : ऊँट की पीठ की तरह कर्म की रचना वक्र है जो जाति आदि की उत्पत्ति की विषमता से समान होनेवाली नहीं है । उसमें योगी को प्रेम कैसे हो सकता है ? विवेचन : ऊँट के अठ्ठारह वक्र । कर्म के अनंत वक्र । 1 सर्वत्र विषमता ! जहाँ देखो वहाँ विषमता ! कहीं भी समानता के दर्शन नहीं ! समानता जैसे मृगजल बन गई है ! मतलब कर्मों में सर्जित दुनिया विषमता से लबालब भरी हुई है । जहाँ नमूने के लिए भी समानता नहीं ! जाति की विषमता... कुल की विषमता... शरीर, विज्ञान, आयुष्य, बल, उपभोगादि सभी में विषमता । ऐसी कर्म सर्जित घिनौनी दुनिया से त्यागी-योगी को भला प्रीति कैसी ? • विश्व में विषमता के दर्शन करो ।
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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