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________________ ३०३ कर्मविपाक-चिन्तन खुद को मिटाने के लिए कर्म स्वयं आगे बढकर जीव को सामग्री प्रदान कर रहा है। • तुम्हें मनुष्यगति प्राप्त है ? • तुमने आर्य-भूमि में जन्म धारण किया है ? तुम्हें तन-बदन का आरोग्य मिला है ? तुम्हारी पाँचों इन्द्रियाँ परिपूर्ण हैं ? • तुम्हें चिन्तन-मनन के लिए मन मिला है ? • तुम्हें सुदेव, सुगुरु और सद्धर्म का संयोग मिला है ? कर्म-क्षय हेतु और भला, किस सामग्री की आवश्यकता है ? इससे बढ़िया और विशेष सामग्री को अब भी क्या गरज है ? तो क्या कर्म-क्षय की भावना भी कर्मों को ही जगानी पड़ेगी, पैदा करनी होगी? सचमुच कितनी बेहंदी बात है ? सम्भवत: तुम अब भी कर्म की पिशाचलीला से परिचित नहीं हो । यदि तुमने अनुकूल परिस्थिति और सामग्री का समय रहते सदुपयोग न किया तो वह उसे दुबारा छीन लेगा और फिर तुम्हारी ऐसी बुरी हालत करेगा कि तुम फूट-फूट कर रोओगे । लेकिन उसके सिकंजे से छूट नहीं पाओगे । तब एक क्षण ऐसा आएगा कि तुम कर्मों के गुलाम बन जाओगे । यदि तुम प्राप्त सामग्री का योग्य उपयोग करोगे तो वह (कर्म) तुम्हें इससे भी बढकर और अमूल्य सामग्री प्रदान करेगा । फलत: उससे तुम अपने सभी कर्मों का सरलता से नाश कर सकोगे । जिस तरह कर्मों को तुम प्रत्यक्ष में देख नहीं सकते, ठीक उसी तरह तुम्हें उसका क्षय भी प्रत्यक्ष में नहीं दिखनेवाले धर्म से ही करना होगा । यह सनातन सत्य है कि धर्म से कर्म नष्ट होते हैं । धर्म आत्मा का है, लेकिन आत्मा तक पहुँचने के लिए तुम्हें अपनी पाँचों इन्द्रियाँ और मन का सदुपयोग करना पड़ेगा । संसार के तुच्छ सुख और सुविधा में भूलकर भी अपनी इन्द्रियों को और मन को न लगाओ। तभी तुम आत्मा की गहराई को स्पर्श कर पाओगे और आत्मधर्म प्राप्त कर सकोगे । आत्मधर्म की प्राप्ति होने पर कर्म-क्षय होते विलम्ब
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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