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कर्मविपाक-चिन्तन
जातिचातुर्यहीनोऽपि कर्मण्यन्युदयावहे। क्षणाद् रोऽपि राजा स्यात् छत्रछन्नदिगन्तरः ॥२१॥३॥
अर्थ : जब अभ्युदयप्रेरक कर्मों का उदय होता है तब जाति और चातुर्य से हीन और रंक होने पर भी, क्षणार्ध में दिशाओं को छत्र से ठकनेवाला राजा बन जाता है।
विवेचन : वह नीच जाति में जन्मा है, चतुराई और अक्लमंदी नाम की कोई चीज उसमें नहीं है, फिर भी चुनाव में प्रचण्ड मत से चुन आता है, विजयी बनता है, मन्त्री या मुख्य मन्त्री के सर्वोच्च स्थान पर आरूढ़ होता है । आज के युग में राजा कोई बन नहीं सकता । राजा-महाराजाओं के राज्य और सत्ता पेड़ से गिरे सूखे पत्ते की तरह नष्ट हो गई है। फिर भी चुनाव में विजयी जातिहीन मनुष्य राजाओं का राजा बन जाता है ।
आज सारे देश में 'जातिविहीन समाज-रचना' की हवा पूरे जोर से बह रही है ! 'मनुष्यमात्र समान', सुक्ति के अनुसार हर जगह नीच जाति के लोगों को उच्च स्थानों पर बिठा दिये गये हैं और कुशाग्र बुद्धिवाले परमतेजस्वी उच्च जाति
और वर्ण के व्यक्तियों को सरेआम हेयदृष्टि से देखा जाता है... ! आन्तरजातीय विवाह का सर्वत्र बोलबाला है... और ऐसे विवाह रचानेवाले व्यक्ति तथा परिवारों को पुरस्कृत कर प्रशासकीय स्तर पर सम्मानित किया जाता है । भले ही निम्न जाति के लोगों को उच्च स्थान प्रदान किये जाते हो, लेकिन यह न भूलिए कि 'जैसी जात वैसी पात !'
सोचना यह है कि आखिर इस उत्थान और पतन के पीछे क्या राज छिपा है ? जातिविहीन और मतिमंद व्यक्ति उच्च स्थान पर आरूढ कैसे हो गये? यहाँ पर इसका समाधान / निराकरण यों किया गया है : "अभ्युदय करनेवाले कर्मों के उदय से !" शुभ कर्म का उदय व्यक्ति का अभ्युदय करता है । शुभ कर्म का उदय, जाति विहीन और मतिमंद के लिए भी लागु है ! बुद्धिहीन व्यक्ति भी शुभ कर्म के उदय से सर्वसत्ताधीश बन जाता है !
लगता है आज के युग में उन तमाम नीच जाति के और बुद्धिहीन लोगों के सामुदायिक शुभ कर्मों का उदय आ गया है । फलत: निम्न जातिवाला 'बोस'