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________________ २९२ ज्ञानसार . मुनि किसीको सौभाग्यशाली, किसीको दुर्भागी, किसीको सफल, किसीको असफल, किसीको मृदुभाषी, किसीको कर्कशभाषी, किसीको खूबसूरत, किसीको बदसूरत, किसीको हंसगतिवाला तो किसीको ऊँट गतिवाला देखता है, तब उसे इससे कोई हर्ष-विषाद नहीं होता ! बल्कि वह इसे नामकर्म का विपाक समझता है। जब मुनि के अपने जीवन में भी ऐसी विषमताओं का प्रादुर्भाव होता है तब 'यह कैसे हुआ? यह किस तरह सम्भव है ?' आदि प्रश्न उपस्थित कर उद्विग्न नहीं होते । क्योंकि वे 'कर्म विपाक के विज्ञान' से भली-भाँति परिचित होते हैं । उसके पीछे रहे 'कर्म-बन्धन-विज्ञान' के भी वे जानकार होते हैं । अतः वे दीनता नहीं करते और सुख-दुःख के द्वंद्व उन्हें स्पर्श तक नहीं कर पाते। उक्त महावैज्ञानिक मुनि के अन्तर में हर्ष-शोक की लहरियाँ । भँवर पैदा नहीं हो पाते । वे स्वयं को सुखी अथवा दुःखी नहीं मानते । कर्मोदय भले शुभ हो या अशुभ, वे उसमें खो कर किसी प्रकार की सुख-दुःख की कल्पना नहीं करते। दीनता-हीनता और हर्षोन्माद के चक्रवात में से बचने का यह एक वैज्ञानिक मार्ग है; 'जगत् को कर्माधीन समझो । संसार की प्रत्येक घटना के पीछे रहे कर्म तत्त्व की गहरी और वास्तविक जानकारी हासिल करो । यही जानकारी तुम्हें कभी दीन नहीं बनने देगी, ना ही विस्मित होने देगी । फलतः, दीनता और विस्मय नष्ट होते ही तुम अन्तरंग आत्मसमृद्धि की दिशा में गतिशील बनोगे । येषां भृभंगमात्रेण, भज्यन्ते पर्वता अपि । तैरहो कर्मवैषम्ये भूपैभिक्षाऽपि नाऽऽप्यते ॥२१॥२॥ अर्थ : जिनकी भृकुटि तनने मात्र से भी बड़े बड़े पर्वत छिन्न भिन्न हो जाते हैं, ऐसे महारथी राजा भी कर्म-विषमता पैदा होने पर भिक्षा भी नहीं पाते, यह आश्चर्य है ! विवेचन : कर्मों की यह न जाने कैसी विषमता है ? बड़े से बड़े राजा भिखारी बन जाते हैं ! भीख माँगने पर भी अनाज का दाना नहीं मिलता ! जिन की भ्रुकुटि तनते ही हिमाद्रि की पर्वतमालाएँ कम्पायमान
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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