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२१. कर्मविपाक-चिन्तन
तुम्हारे अपने सुख और दुःख के कारण जानने के लिए तुम्हें कर्म के तत्त्वज्ञान का अभ्यास करना ही होगा। समस्त विश्व पर जिन कर्मों का जबरदस्त प्रभाव है, उन्हें (कर्मों को) पहचाने बिना नहीं चलेगा । हमारे समस्त सुख और दुःख का मूल आधार कर्म ही है । यह सनातन सत्य जान लेने के पश्चात् हमें
अपने सुख-दुःख का निमित्त, भूल कर भी अन्य जीवों को नहीं बनाना चाहिये ! . प्रस्तुत चिंतन गहरायी से और एकाग्र चित्त से करना ! बीच में ही रुक न जाना, बल्कि पुनः पुनः चिंतन करना ! निःसंदेह तुम्हें अभिनव ज्ञानदृष्टि प्राप्त होगी।
दुखं प्राप्य न दीनं स्यात् सुखं प्राप्य च विस्मितः ! मुनिः कर्मविपाकस्य जानन् परवशं जगत् ॥२१॥१॥
अर्थ : कर्मविपाकाधीन जगत से परिचित होकर साधु दुःख पाकर दीन नहीं होता, ना ही सुख पाकर विस्मित !
विवेचन : सम्पूर्ण जगत ! .. कर्मों की अधीनता !
कर्म के अधीन कोई दीन है, कोई हीन है ! कोई मिथ्याभिमानी है ! कोई दर-दर भटकता है तो कोई घर-घर भीख माँगता है । कोई गगन-चुम्बी अट्टालिकाओं में इठलाता-इतराता है तो कोई प्रिय-परिजन के वियोग में करूण क्रंदन करता है। कोई इष्ट के संयोग में स्नेह का संवाहन करता है तो कोई पुत्रपरिवार की विरहाग्नि में निरंतर धू-धू जलता है । कोई रोग-बीमारी से त्रस्त हो छटपटाता है, विलाप करता है तो कोई निरोगी काया के उन्माद में प्रलाप करता है !