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________________ सर्वसमृद्धि २८९ अरिहंत-पद कहिए या फिर तीर्थंकर - पद, गंगा की तरह पवित्र है ! पदवी श्रेष्ठ होने पर भी उसका लेशमात्र अभिमान नहीं ! पदवी सर्वोत्तम, लेकिन कतइ दुरुपयोग नहीं ! ऐसी यह पवित्र पदवी है ! तीन रत्नों की पवित्रता जैसी । जिस तरह तीन प्रवाहों से गंगा पवित्र है न ? आप तीर्थंकर पद की कामना करें, अन्तर में अभिलाषा रखें, यह सर्वथा उचित है । लेकिन इसके लिए जगत के समस्त जीवों के प्रति करुणा भाव धारण करें ! सबका हित का विचार करें। किसी जीव के लिए अनिष्ट चिंतन न करें । सांसारिक जीवों के दोष अथवा अवगुण दिखायी दें तो उन्हें जड-‍ - मूल से उखाड़ ने की भावना रखें ! ठीक वैसे ही, उसके लिए सक्रिय प्रयत्न करें। ना कि उनके दोष देख कर उनसे मुँह फेर लें । उनके प्रति तिरस्कार अथवा घृणा का भाव न रखें । स्वहित के बजाय परहित को अपने विचारों का केन्द्र बिन्दू बनाना । 1 तीर्थंकर - पद की प्राप्ति के मनोरथ भावना और तमन्ना तब पैदा होती है जब आत्मा योग - भूमिका में स्थिर हो गयी हो । ज्ञानदृष्टि से संसार का अवलोकन किया हो ! उसकी बाह्य समृद्धि को तुच्छ, असार समझ कर परित्याग कर दिया हो अथवा उसे त्यागने का दृढ़ संकल्प जन्मा हो ! सर्व प्रकार से श्रेष्ठ... सर्वोत्तम समृद्धि में तीर्थंकर - पद की समृद्धि सर्वोच्च मानी जाती है और वह वास्तविकता से परिपूर्ण है । प्रस्तुत 'सर्वसमृद्धि' अष्टक में अंतिम समृद्धि 'तीर्थंकर - पद' की बताकर पूज्य उपाध्यायजी महाराज अष्टक पूरा करते हुए आत्मा को तीर्थंकर - पद - प्राप्ति हेतु आवश्यक उपायों की ओर उन्मुख होने का निर्देश करते हैं । तीर्थंकर - पद का प्रधान कार्य है : दुःख त्रास और संकटों से दुनिया को उवारने का । अतः वह श्रेष्ठ - पद कहलाता है !
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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