SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 313
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८८ ज्ञानसार अर्थ : जिस तरह तीन प्रवाहों के संगमस्वरुप पवित्र गंगा नदी है, ठीक उसी तरह, तीन रत्नों से युक्त पवित्र ऐसा तीर्थंकर पद भी सिद्धयोगी साधु से अधिक दूर नहीं । विवेचन : खैर, आप ब्रह्मा शंकर अथवा श्री कृष्ण बनना नहीं चाहते, देवेन्द्र बनने का या चक्रवर्तीत्व का शौक नहीं, लेकिन तीर्थंकर-पद की तो चाह है न ? तीर्थंकर-पद ! सम्यग् ज्ञान, सम्यग् दर्शन और सम्यक् चारित्र : इन तीन रत्नों से पवित्र पद ! क्या आप इस पद के चाहक हैं ? यह भी मिल सकता है ! लेकिन इसके लिए आपको ढेर सारी प्राथमिक तैयारियाँ करनी पड़ेंगी और उसके लिए दो बातें मुख्य हैं : (१) भावना और (२) आराधना । मन में हमेशा ऐसी भावना होनी चाहिए कि, 'मोहान्धकार में भटकते और दुःखी-पीडित जीवों को मैं परम सुख का मार्ग बताऊँ, उन्हें दुःख से मुक्ति दिलाऊँ... समस्त जीवों को भव-बन्धन से आजाद करूँ !' इस भावना के साथ वीस स्थानक तप की कठोर आराधना होनी चाहिए । इन दो बातों से तीर्थंकरपद की नींव रखी जाती है और तीसरे भव में उस पर विशाल इमारत खडी हो जाती है। तीर्थंकर नामकर्म निकाचित करते ही आप तीर्थंकर बन गये समझो ! इस भावना और आराधना में प्रगति होने पर; गुरुभक्ति और ध्यान योग के प्रभाव से आप स्वप्न में तीर्थंकर भगवान का दर्शन करोगे ! विश्व का सर्वोत्तम श्रेष्ठ पद ! तीर्थंकरत्व की दिव्यातिदिव्य समृद्धि ! समवसरण की अद्भुत रचना, अष्ट महाप्रतिहारी की शोभा, वाणी के पैंतीस गुण और चौंतीस अतिशय... वीतराग दशा और सर्वज्ञता, चराचर विश्व को देखना और जानना... शत्रु-मित्र के प्रति समदृष्टि ! ऐसी अवस्था आपको पसंद है न ? और कार्य क्या है आपका ? सिर्फ धर्मोपदेश द्वारा विश्व में सुख-शान्ति की सौरभ फैलाना ! समस्त विश्व को सुखी करने का उपदेश देना !
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy