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सर्वसमृद्धि
और वैभव की सारी कल्पनाएँ इसी पर - पदार्थों को लेकर ही हैं और हमारे जीवन में पर-पदार्थों की अपेक्षा ऐसी तो रूढ बन गई है कि उसके बिना संसार में जीव जी नहीं सकता, वस्तुतः उसका जीना असम्भव है ।
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मुनिराज जिस अनुपात में साधना-आराधना के मार्ग में आगे बढते हैं, ठीक उसी अनुपात में पर-पदार्थ की सहायता के बिना जीवन व्यतीत करने का प्रयत्न करते हैं । जैसे भी सम्भव हो कम से कम परपदार्थों की सहायता लेते हैं। साथ ही, आंतरिक गुणसृष्टि का इस तरह सर्जन करते हैं कि जिसके बल पर नित्य स्वतंत्र और निर्भय जीवन जी सकें। उनकी सृष्टि में प्रलय के लिए कोई स्थान नहीं, जबकि ब्रह्मा द्वारा रचित सृष्टि में प्रलय और उल्कापात की पूरी सम्भावना है। प्रलय अर्थात् सर्वनाश ! आत्मगुणमय सृष्टि में जब जीवन का प्रारम्भ होता है तब किसी प्रकार की कोई अपेक्षा नहीं होती, बल्कि सर्वथा निरपेक्ष जीवन ! मतलब कोई राग-द्वेष नहीं, झगड़े-फसाद नहीं ! सुख-दुःख का द्वंद्व नहीं ।
ब्रह्माजी की सृष्ट की तुलना में मुनिराज की सृष्टि कितनी भव्य, दिव्य और अलौकिक होती है । इस सृष्टि में सुख, शान्ति, निर्भयता और विशाल समृद्धि का भण्डार होता है कि जीव को पूर्ण तृप्ति हो जाय !
अतः हे मुनिराज ! आप तो सृष्टि के सर्जनहार ब्रह्माजी से भी महान् हैं ! कष्ट, दुःख, वेदना और नारकीय यातनाओं से युक्त ब्रह्मा की दुनिया के बजाय आप कैसी अनुपम, अलौकिक, अनंत सुख, आनन्द और पूर्ण रूप से स्वायत्त, गुणसृष्टि का सृजन करते हैं ! अब तो आपको अपनी महत्ता, स्थान और शक्ति का अहसास हुआ या नहीं ? अब तो आपको किसी बात की न्यूनता का अनुभव नहीं होगा न ? वह कोई काल्पनिक बात नहीं है, बल्कि वास्तविक हकीकत है । आप इस पर गंभीरता से विचार कर इस बात को आत्मसात् करना । परिणामतः गुणसृष्टि का सर्जन करने के लिए आप प्रोत्साहित होंगे और कल्पित सृष्टि की रचना से मुक्त हो जाएंगे ।
रत्नैस्त्रिभिः पवित्रा या श्रोतोभिरिव जाह्नवी । सिद्धयोगस्य साऽप्यर्हत्पदवी न दवीयसी ॥२०॥८॥