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ज्ञानसार
सुख शान्ति प्राप्त करने का व्यर्थ प्रयत्न न करे । ज्ञान और चारित्र प्रति पूरी निष्ठा हो । यदि इन पर इमानदारी से अमल किया जाए तो कभी किसी चीज की कमी महसूस न होगी और कीति-पताका सर्वत्र फहरती रहेगी।
शंकर महाराज ! आप अपना वैराग्य-डमरू बजाकर राग-द्वेष से भरी दुनिया को निरंतर सुनाते रहिए !
ज्ञानदर्शनचन्द्रार्कनेत्रस्य नरकच्छिदः । सुखसागरमग्नस्य किं न्युनं योगिनो हरेः ॥२०॥६॥
अर्थ : ज्ञान-दर्शन रुपी सूर्य और चन्द्र जिनके नेत्र हैं, जो नरकगति (नरकासुर-हन्ता) का विनाश करनेवाले हैं, ऐसे सुख रूपी समुद्र में निमग्न योगी को कृष्ण से भला क्या न्यून है ?
विवेचन : श्री कृष्ण ! -चन्द्र और सूर्य जिन की दो आंखे हैं, -जिन्होंने ने नरकासुर का वध किया है, -अथाह सागर में जो निमग्न रहते हैं,
योगीराज ! तुम्हें श्री कृष्ण से भला क्या कमी है ? क्या आपकी दो आँखे चन्द्र-सूर्य नहीं है ? क्या आपने नरकासुर का वध नहीं किया है ? क्या आप सुखसागर में सोये नहीं हैं ? फिर भला, आप अपने में किस बात की न्यूनता का अनुभव करते हैं ? आप स्वयं ही तो श्रीकृष्ण हैं ।
आपकी दो आँखे हैं : ज्ञान और दर्शन ! ये चन्द्र-सूर्य समान ही तेजस्वी और विश्व प्रकाशक हैं।
___ क्या आपने नरक गति का उच्छेदन नहीं किया है ? नरकासुर का मतलब नरकगति ! चारित्र के अमोघ शस्त्र से आपने नरकगति का विच्छेद किया है, नाश किया है।
आत्मसुख के समुद्र में आप सोये हुए हैं। अब आप ही बताइए श्रीकृष्ण की विशेषताओं से आप की विशेषता कौन सी कम हैं ?