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________________ २८५ सर्वसमृद्धि किसी वस्तु को सामान्य रूप से देखना यानी दर्शन और विशेष रुप से देखना यानी ज्ञान । विश्व की जड़-चेतन वस्तुओं को मुनि सामान्य और विशेषदोनों दृष्टि से परखता है। हर वस्तु में सामान्य और विशेष दोनों स्वरूप समाविष्ट हैं । जब उसके सामान्य स्वरूप को देखा जाए तब दर्शन और विशिष्ट रूप में देखा जाए तब ज्ञान कहा जाता है । योगी का जीवन महाव्रतों से युक्त होता है । अतः वह मृत्यु के बाद नरक में नहीं जाता, अतः उसने नरकासुर का वध किया, ऐसा कहा जाता है। क्योंकि नरक का भय यह अपने आप में एकाध असुर से कम नहीं है। पवित्र पापरहित जीवन व्यतीत करने से ही यह भय दूर होता है। ___आध्यात्मिक सुख के महोदधि में मुनि मस्त होकर शयन करता है । भले अरेबीयन महासागर सूख जाए, जल का थल हो जाय और अथाह जलराशि रणप्रदेश में बदल जाए, लेकिन अध्यात्म-महोदधि कभी नहीं सूखता ! पूज्य उपाध्यायजी महाराज मुनि को अक्षय, अभय और स्वाधीन समृद्धि का सुख बताने हेतु आत्मभूमि पर ले जाकर, एक के बाद एक उत्तमोत्तम समृद्धि का दर्शन कराते जाते हैं। - संसार में श्रेष्ठ समझी जानेवाली समृद्धि के विविध स्वरूपों का निकट से दर्शन कराते हुए कहा है : "तुम तो ऐसी सम्पत्ति के स्वयं अधिपति हो... तुम दुनिया के सर्वश्रेष्ठ समृद्धिवान और वैभवशाली हो । तुम दीन न बनो । भौतिक संपदा के प्रति भूल कर भी आकर्षित न हो । तुम देवेन्द्र हो, तुम चक्रवर्ती हो, तुम महादेव शंकर हो और श्रीकृष्ण भी तुम ही हो । सिर्फ अपने आपको पहचानो (Know your self) जब तुम अपने आपको पहचान लोगे तब दुनिया के श्रेष्ठ सुखी जीव बनते तुम्हें विलम्ब नहीं लगेगा !" योगी ही बनना पडे तो हरि से किसी बात में न्यूनता नहीं लगेगी ! जब तक योगी नहीं बनेंगे तब तक गली-बाजारों में भटकते भिखारी से भी न्यूनता महसूस होगी ! अत: तुम्हें नित्यप्रति ज्ञान और चारित्र की योगसाधना करनी है।
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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