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________________ सर्वसमृद्धि २८३ से यह अध्यात्म का पर्वत अनेकानेक विशेषताएँ लिए हुए है । कैलाश पर्वत से अध्यात्म का पर्वत सचमुच दिव्य और भव्य है। ___वृषभ-बैल का वाहन आपके पास है न ? आप विवेक-रुपी वृषभ पर अरूढ हैं । आप सत्-असत् के भेदाभेद से अवगत हैं, हेय-उपादेय से भली भाँति परिचित हैं ! शुभाशुभ में रहे अन्तर का आपको ज्ञान है । यही आपका विवेक वृषभ है। क्या आप जानना चाहते हैं कि गंगा-पार्वती कहाँ पर हैं ? अरे आपकी दोनों ओर गंगा-पार्वती बैठी हुई हैं । तनिक दृष्टिपात तो कीजिए उस ओर ! कैसा मनोहारी रूप है उनका और आपकी प्रेमदृष्टि के लिये दोनों लालायित हैं । चारित्र-कला आपकी गंगा है और ज्ञान-कला पार्वती । उन गंगा-पार्वती से ये गंगा और पार्वती आपको अपूर्व अद्भुत एवं असीम सुख प्रदान करती हैं ! ये दोनों देवियां दिन-रात आपके साथ ही रहती हैं और आप को जरा भी कष्ट पडने नहीं देती ! आप से अलग उनका अपना अस्तित्व ही नहीं है...। आप के अस्तित्व एवं व्यक्तित्व में दोनों ने अपना अस्तित्व और व्यक्तित्व विलीन कर दिया है। ऐसे अनन्य, अद्भुत प्रेम के प्रतीक जैसी चारित्र-कला और ज्ञान कला समान देवियाँ आपके साथ हैं । अब भला बताइए, आपको विश्व से क्या लेना-देना ? उसकी परवाह ही क्यों ? । कहिए मुनिराज, निःसंकोच बताइए । समृद्धि में कोई कसर रह गयी है ? आवास के लिए उत्तुंग पर्वत, वाहन के रूप में बलिष्ठ वृषभ और गंगा-गौरी जैसी प्रियतमाएँ और आप को किस चीज की आवश्यकता है ? आप अपनी धुन में रह सारी दुनिया को प्रेमदीवानी बनाते रहिए । कहने का तात्पर्य यह है कि मुनिश्वर को नित्यप्रति अध्यात्म-समाधिस्थ ही रहना है। उन्हें अध्यात्म को ही अपना आवास मानना चाहिए । जब-जब बाहर निकलने का प्रसंग आए तब विवेकारूढ होकर ही जाना चाहिए । बिना विवेक के कहीं न जाएँ और ना ही कुछ देखने का प्रयत्न करें । ज्ञान और चारित्र के आए साथ ही जीना और मरना है। जीवन का आनन्द सुख एवं शान्ति, ज्ञान तथा चारित्र के सहवास में ही प्राप्त करें। इनका संग छोडा किन्ही दूसरो में खोकर,
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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