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ज्ञानसार
ही उसका मनोवांछित पूरा कर सकी। काम-वृष्टि का एकाध बूँद भी उन्हें भीगा नहीं सका ! क्योंकि उस चक्रवर्ती के पास सत्क्रियाओं के चर्मरत्न और सम्यग् - ज्ञान के छत्ररत्न जो थे । यह दो रत्न सदा-सर्वदा चक्रवर्ती की, उनके शत्रुओं से रक्षा करते हैं । बशर्ते कि चक्रवर्ती इन दोनों को अहर्निश अपने पास ही रखे। यदि उन्हें अपने पास नहीं रखा तो घडी के सौवे भाग में ही चक्रवर्ती को नामशेष होते देर नहीं लगेगी ।
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मुनिराज ! आपको तो सभी आश्रवों का परित्याग कर सर्वसंवर में स्वयं को नियंत्रित करना है, यानी क्रिया और ज्ञान में परिणति प्राप्त करना है । मनवचन काया के योगों को चारित्र की क्रियाओं में पिरो लेना है और ज्ञान का अखण्ड़ उपयोग रखना है । भूलकर भी कभी ज्ञान - ज्योति बुझ न जाए, इसका पूरी सावधानी से ध्यान रखना है । यदि क्षायोपशमिक ज्ञान, शास्त्रज्ञान की मंद दीपिका भी बुझ गयी तो वासनाओं की डांकिनियाँ तुम्हारा खून चूस लेंगी। वासनाओं की मूसलाधार बारिश तुम्हें भीगा कर ही छोड़ेगी और फलतः तुम अस्वस्थ हो, भाव मृत्यु की गोद में समा जाओगे ।
प्रतिदिन स्मरण रखिए कि आप चक्रवर्ती हैं। चक्रवर्ती की अदा से जीवन व्यतीत करना सीखिए। दो रत्नों को अहर्निश अपने पास रखिए ! मोहम्लेच्छ पर विजयश्री पा लोगे !
नवब्रह्मसुधाकुण्ड-निष्ठाधिष्ठायको मुनिः ।
नागलोकेशवद् भाति क्षमां रक्षन् प्रयत्नतः ॥ २० ॥४॥
अर्थ : नौ प्रकार के ब्रह्मचर्य रूपी अमृत-कुण्ड की स्थिति के सामर्थ्य से स्वामी और प्रयत्न से सहिष्णु वृत्ति के धारक मुनिराज हूबहू नागलोक के स्वामीवत् शोभायमान हैं ।
विवेचन : मुनिश्वर ! आप शेष भाग हैं, नागलोक के अधिपति हैं । आश्चर्यचकित न हों | साथ ही इन बातों को नीरी कल्पना न समझें ! सचमुच आप नागेन्द्र हैं ।
ब्रह्मचर्य का अमृत-कुण्ड आपका निवास स्थान है । क्षमा- पृथ्वी को
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