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सर्वसमृद्धि
२७९ विवेचन : हे मुनीश्वर, क्या आप चक्रवर्ती नहीं हैं ? अरे, आप तो भावचक्रवर्ती हैं । चक्रवर्ती की अपार समृद्धि तथा शक्ति के आप आगार हैं । यह क्या आप जानते हैं ?
आपके पास चर्मरत्न है । सम्यक्-क्रिया का चर्मरत्न है ! आपके पास छत्ररत्न है । सम्यग् ज्ञान का छत्ररत्न है !
भले ही फिर मोहरूपी म्लेच्छ, मिथ्यात्व के दैत्यदल भेजकर तुम पर कुवासनाओं का शस्-संधान कर दें ! चर्मरत्न और छत्ररत्न आपका बाल भी बाँका नहीं होने देंगे।
आपमें यह खुमारी अवश्य होनी चाहिए कि, 'में चक्रवर्ती हूँ।' साथ ही, इस बात का गर्व होना चाहिए कि "मेरे पास चर्मरत्न और छत्ररत्न हैं।" इस प्रकार के गर्व और खुमारी से आप दीन नहीं बनेंगे, कभी हताश नहीं होंगे, कायर नहीं होंगे।
फिर भले ही मोहम्लेच्छ कैसा भी जाल बिछाएँ, जैसा चाहें वैसी व्यूहरचना कर दें, तुम्हारे इर्द-गिर्द मिथ्यात्व के भयंकर दैत्यों का पहरा बिठा दें और तुम्हें उलझानेवाली विविध वासनाओं की बौछार कर दें, लेकिन आप निर्भय बनकर पूरी शक्ति से उसका सामना करना । यदि तुम सम्यक् क्रियाओं में निमग्न होंगे तो वासना के तीर आपका कुछ नहीं बिगाडेंगे ! यदि तुम सम्यग्-ज्ञान में मग्न होंगे तो वासना के तीर तुम्हारी प्रदक्षिणा कर पुनः लौट जाएंगे और उसी दैत्य का वक्ष-स्थल भेदते हुए आर-पार हो जाएँगे । जानते नहीं ? स्थूलीभद्रजी पर मोह-मलेच्छ ने कैसा तो गजब का आक्रमण किया था ? वासना की कैसी अति-वृष्टि की थी ? लेकिन वे चक्रवर्ती मुनीन्द्र थे ! मोह ने नगरवधु कोशा के हृदय में मिथ्यात्व का आरोपण किया था, मिथ्यात्व ने उन पर वासनाओं की जबरदस्त मुठ मारी थी। कोशा नित्यप्रति नव-शृंगार कर वासनाओं के तीर पर तीर छोडने लगी, वासनाओं की तुमुल वर्षा करने लगी, उन्हें वश में करने के लिए नानाविध नेत्र-कटाक्ष और प्रेमालाप की शतरंज बिछाने लगी, अंगविन्यास किये और मदोत्तेजक भोजन पुरसे ! गीत-संगीत और नर्तन-कीर्तन से जादुई शमाँ बांध दिया । लेकिन उसकी युक्ति स्थूलिभद्रजी पर कारगर सिद्ध न हुई । ना