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________________ २७८ ज्ञानसार प्लावित करनेवाला और प्रेमदृष्टि से घायल करनेवाले सहयोगी की आवश्यकता है न ? यह रही वह सुयोग्य, रुपसम्पन्न, नवयौवना इन्द्राणी समता - शचि ! आपकी कायमी सहयोगिनी है ! इसी समता - शचि के हाथ अमृतपान करते रहना, उसके अनिंद्य सौन्दर्य का उपभोग करते रहना ! आपको कभी अकेलापन महसूस नहीं होगा ! आपका मन सदा-सर्वदा प्रेम की मस्ती में खोया रहेगा । समताशचि मध्यस्थदृष्टि है | अतः इसे क्षणार्ध के लिए भी अपने से अलग नहीं करना । 'लेकिन वास-स्थान कहाँ ?' अरे मुनिराज, आपको विशाल विमान में ही निवास करना है। ईंट - चूने और मिट्टी-पत्थर से बनी इमारतें इसके मुकाबले तुच्छ हैं ! घास फूस की झोंपड़ी या मिट्टी के कच्चे मकान आपके लिए नहीं ! आपको अपने परिवार के साथ विमान में ही निवास करना है । ज्ञान - रुपी महाविमान के आप खुद एक मात्र मालिक हैं । ज्ञान / आत्मस्वरुप के अवबोध रूपी ज्ञान... यही महाविमान है । बताइए, इसमें निवास करते हुए आपको किसी कठिनाई का सामना तो नहीं करना पडेगा न ? सभी प्रकार की सुविधाएँ और सुख सामग्री से युक्त यह विशाल विमान है... ! वस्तुतः आपका नन्दनवन भी इसी विमान में है और आपकी अनन्य सहयोगिनी इन्द्राणी तथा वज्र भी इसी विमान में रहेंगे ! कहिए, कोई न्यूनता रह गयी है ? मुनिन्द्र, आपके पास विश्व की श्रेष्ठ सम्पत्ति उच्चतम वैभव और अमोघ शक्ति है । ऐसी दिव्यावस्था में आप के दिन रात कैसे गुजर जाएंगे, उसका पता तक नहीं चलेगा । अतः हे मुनिश्वर ! आप अपनी शक्ति, सम्पत्ति और अलौकिक समृद्धि को पहचानिए । साथ ही, इसके अतिरिक्त तुच्छ एवं असार ऐसी पौद्गलिक सम्पत्ति की कामनायें छोड दें । विस्तारितक्रियाज्ञानचर्मच्छत्रो निवारयन् । मोहम्लेच्छमहावृष्टिं चक्रवर्ति न किं मुनिः ? ॥२०॥३॥ अर्थ : क्रिया और ज्ञान रूपी चर्मरत्न एवं छत्ररत्न से जो युक्त है और मोहम्लेच्छो द्वारा महावृष्टि का जो निवारण करते हैं, क्या ऐसे महामुनि चक्रवर्ति नही है ?
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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