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ज्ञानसार
घना अन्धेरा दिखायी देगा और तब शनैः शनैः वहाँ स्थित अखण्ड भण्डार दृष्टिगोचर होने लगेगा...।
कुछ दिखा ? नहीं ?
तब तुम्हारी समस्त इन्द्रियों की शक्ति को केन्द्रित कर, अन्तरात्मा में रही समृद्धि के भण्डार को देखने के काम में लगा दो । विश्वास रखो, वहाँ विश्व का श्रेष्ठ और अक्षय भण्डार दबा पड़ा है... और तुम उस भण्डार के बिलकुल करीब हो... धैर्य रखकर उसे देखने का प्रयत्न करो । उसमें क्या है और क्या नहीं, इसे जानने के लिए इतने आकुल-व्याकुल न बनो । तुम स्वयं ही भण्डार में क्या है उसे ध्यान पूर्वक देख लेना । फिर भी कह देता हूँ कि भण्डार की समृद्धि से तुम देव-देवेन्द्रों के साम्राज्य खरीद सकते हो... । देवलोक और मृत्युलोक की समस्त ऋद्धि-सिद्धियाँ मोल ले सकते हो साथ ही, जानकारी के लिए उक्त समृद्धि की एक विशेष खासियत बता दूँ । इसे प्राप्त करने के बाद वह कदापि कम नहीं होगी...!
क्या अब भी दृष्टिगोचर नहीं हुई वह समृद्धि ? बाह्यदृष्टि तो बन्ध कर रखी है न ? उस पर 'सील' मार दो । वह तनिक भी खुली न रहने पाएँ, वरना भण्डार नजर नहीं आएगा । बाह्यदृष्टि के पापवश ही कई बार जीव इसके (समृद्धि का भण्डार) बिलकुल करीब आकर हाथ मलते रह जाते हैं ! अर्थात् उन्हें निराशा ही गले लगानी पड़ती है । अतः बाह्यदृष्टि को तो चूर-चूर कर दो।
हाँ, अब भण्डार के दर्शन हुए ! अस्पष्ट और क्षणिक दर्शन ! परवाह नहीं अस्पष्ट ही सही, आखिर दृष्टिगोचर तो हुआ न ? अब अपने हाथ तनिक लम्बे कर आगे बढो, उत्तरोत्तर प्रकाश की ज्योत बड़ी होती जाएगी... हो गयी न? अब तो भण्डार के स्पष्ट दर्शन हो गये न? पूरी शक्ति से उसे खोल दो । न जाने कैसी अद्भुत समृद्धि से वह भरा पडा है !
अब बताइए, तुम्हें देश-परदेश में भटकने की गरज है ? सेठ-शाहुकारों की गुलामी करने की जरूरत है ? वाणिज्य, व्यापार करने की आवश्यकता है? पुत्र-पौत्रादि परिवार के पास जाने की इच्छा है ? उन सब का स्मरण भी हो आता है क्या ? जो भी है, भव्य और अद्भुत है न ? लेकिन सावधान ! बाह्यदृष्टि के