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________________ २०. सर्वसमृद्धि आहा ! 'वैभव' और 'समृद्धि, शब्द ही कैसे आकर्षक हैं ? जिस वैभव और समृद्धि की चोटीपर से फिसल जाने के कारण जीव की हड्डीपसली खोजे कहीं नहीं मिलती है, उस शिखर पर पहुँचने के लिए न जाने कितने लोग अधीर । आकुल-व्याकुल हो रहे हैं ! प्रस्तुत अध्याय में अपूर्व और अद्भुत समृद्धि के सुहाने गगनचुम्बी शिखरों का दर्शन कराया गया है ! - आप इस अष्टक में आध्यात्मिक वैभव-सम्पत्ति का रसपूर्ण भाषा में वर्णन पढ़ोगे । भौतिक वैभवों का आकर्षण मिट जायेगा और आध्यात्मिक सम्पत्ति पाने के लिए लालायित हो उठेगे ! बाह्यदृष्टिप्रचारेण मुद्रितेषु महात्मनः । अन्तरेवावभासन्ते स्फुटाः सर्वाः समृद्धयः ॥२०॥१॥ अर्थ : जब बाह्यदृष्टि की प्रवृत्ति बन्ध पडती है तब महात्मा को अन्तर में उपजी सर्वसमृद्धि का दर्शन होता है। विवेचन : अपार.... अनंत समृद्धि... ! भला बाहर खोजने की आवश्यकता ही क्या है ? अन्यत्र भटकने से क्या मतलब ? जरा सोचो और एक बात पर गौर करो । तुम अपनी बाह्य दृष्टि बन्ध कर दो। करली ? अब अन्तर्दृष्टि के पेट खोलकर अन्तरात्मा में झांकी ! एकाग्र बनकर देखो । अन्धकार है न ? कुछ दिखाई नही पड़ता ? लेकिन हताश न हो । भूलकर भी अन्तर्दृष्टि बन्ध न कर देना । उसके प्रकाश को और प्रखर बनाकर देखो । बाहर के प्रकाश से आँखे चौंधिया गई हैं, अत: कुछ देर और
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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