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________________ २७४ ज्ञानसार दीन-हीन और दयनीय स्थिति के भोग बन गये हैं ? कैसा करुण क्रंदन कर रहे हैं ! क्यों न बेचारों को इन यातनाओं से बचा लूं? उन्हें धर्म का सही मार्ग बताकर उनके भव-फेरों का अन्त कर दूँ ! उन्हें धर्म का मर्म और रहस्य समझा दूं, ताकि वे अनंत दुःख, संताप और परिताप से मुक्त हो जाएँ... भीषण भवसागर से पार उत्तर जाएँ ।" ___ सांसारिक जीव उन्हें उपकारी माने या न माने, लेकिन वे निरंतर उपकार करते ही रहते हैं । उनके मन में जीव मात्र के कल्याण की भावना ही बसी हुई होती है । प्रखर प्रकाश के दाता सूर्य को भले ही कोई उपकारी माने या नहीं माने, सूर्य प्रकाश देता ही रहता है । क्योंकि यह उसका मूल स्वभाव है ! ठीक उसी तरह, तत्त्वदृष्टि महात्माओं का मूल स्वभाव ही दीन-हीन दयनीय जीवों के प्रति दयार्द्र हो, उपकार करने का है।
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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