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________________ तत्त्व-दृष्टि २७३ जिनशासन के आचार्य, एवं उपाध्याय ऐसे तत्त्वदृष्टि महापुरुषों को प्रशिक्षित करने में रत रहते हैं । विश्व में राग द्वेषादि विकारों को विकसित एवं विस्तृत करने का कार्य तत्त्वदृष्टिवाले महापुरुष नहीं करते, बल्कि उसको विनष्ट करने का भगिरथ कार्य करते हैं । विषय-कषाय के वशीभूत बने भवसागर में डूबते जीवों को देख तत्त्वदृष्टिधारक महापुरुषों का हृदय करुणामृत से आकण्ठ भर जाता है ! प्रायः वे डूबते जीवों को संयम की नौका में बिठाकर भव-सागर से पार लगा देते हैं। महा भयंकर भववन में भूले पड़े जीवों को देखकर तत्त्वदृष्टिवाले महात्माओं के मन में असीम करुणा का स्फूरण होता है । फलस्वरुप वे दयार्द्र होकर जीवों को अभयदान देते हैं, सही मार्ग इंगित करते हैं, उसमें साथ देने का .. आश्वासन देते हैं और मोक्षमार्ग की श्रद्धा प्रदान करते हैं । अनेकानेक जीवों के नाना प्रकार के संदेह, शंका-कुशंकाओं का निराकरण कर, निःशंक बन, मोक्षमार्ग की आराधना में उन्हें प्रेरित - प्रोत्साहित करते 1 हैं । वे समुद्रवत् गंभीर और मेरुवत् अचल अडिग होते हैं । उपसर्ग - परिषह से उन्हें भय नहीं होता, ना ही दीन-हीन वृत्ति रखते हैं । नित्यप्रति मोक्षमार्ग की साधना में खोये रहते हैं । वास्तव में ऐसे महात्मा ही महाहितकारी और कल्याणकारी होते हैं। इस दुनिया में उनके बिना अन्य कोई आश्वासन, आश्रयस्थान अथवा आधार नहीं है । करुणासभर हृदय से और तत्त्वदृष्टि के माध्यम से किये गये विश्वदर्शन से ये विचार प्रगट होते हैं : " अरे ! इस पृथ्वी पर धर्म की ऐसी दिव्यज्योति बिखरी हुई होने पर भी ये पामर जीव अपनी आँखों पर अज्ञान की पट्टी बांधकर संसार की चौरासी लाख जीवयोनि में निरुद्देश्य भटक रहें हैं । आत्मतत्त्व का विस्मरण कर, व्यर्थ में ही जड़ तत्त्वों से सुख प्राप्त करने का मिथ्या प्रयास कर रहे हैं । नारकीय दुःख, कष्ट और नाना प्रकार की विडम्बनाओं से ग्रस्त हो गये हैं । न जाने कैसे
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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