SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 297
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २७२ ज्ञानसार होती है कि मैले-कुचैले, गंदे और नंग-धडंग बाबा, जोगी और अघोरी के पास ऋद्धि-सिद्धियों का भण्डार भरपूर होता है ! वे क्षणार्ध में ही गरीब को अमीर और बाँझी को पुत्रवती बनाने की अद्भुत क्षमता रखते हैं !' बाह्यदृष्टि जीव को मोक्षमार्ग के लिए उपयोगी और कर्म-बन्धन तोडने में अनन्य सहायक ऐसे ज्ञान की आवश्यकता नहीं होती है । लेकिन जो ऐसे ज्ञान के धनी हैं वे विश्व के लिए अनंत उपकारी और हितकारी होते हैं । तत्त्वदृष्टियुक्त जीव ऐसे महापुरुषों को ही 'महात्मा' के रूप में सम्बोधित करते हैं । साथ ही नित्यप्रति उनकी सेवा-भक्ति और उपासना करते हैं । महात्मा बनने के अभिलाषी जीव को ज्ञानदृष्टि से युक्त होना अत्यन्त जरूरी है। क्योंकि ज्ञान-दृष्टि के बिना महान् नहीं बन सकते ! इस तत्त्व को जाननेवाला मनुष्य तत्त्वज्ञान को पाने का प्रयत्न करेगा ही। ___ सिर्फ कोई स्वांग रचकर अथवा बाह्य प्रदर्शन कर कथित महात्मा बनना, उसे रूचिकर नहीं होता है ! वह सदा-सर्वदा निष्पाप और ज्ञानपूर्ण जीवन में ही महानता के दर्शन कर, उस मार्ग पर चलता रहता है । न विकाराय विश्वस्योपकारयैव निर्मिताः । स्फुरत्कारुण्यपीयूषवृष्टयस्तत्त्वदृष्टयः ॥१९॥८॥ अर्थ : स्फूरित करूणा रूप अमृत-धारा की वृष्टि करनेवाले तत्त्वदृष्टि धारक महापुरुषों की उत्पत्ति विकार के लिए नहीं, अपितु विश्व कल्याण हेतु ही विवेचन : -तत्त्वदृष्टिवाले माहपुरुष यानी -करुणामृत का अभिषेक करनेवाले ! -विश्व पर निरंतर उपकार करनेवाले ! -राग-द्वेषादि विकारों का उच्छेदन करनेवाले ! ग्रहण और आसेवन शिक्षा के माध्यम से और स्व-पर आगम ग्रन्थों के सूक्ष्मातिसूक्ष्म रहस्यों की प्राप्ति द्वारा ही तत्त्वदृष्टि महापुरुषों की उत्पत्ति होती है !
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy