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________________ तत्त्व - दृष्टि महात्मा मानता है । मस्तक पर मुंडन नहीं बल्कि लुंचन किया हो, श्वेत वस्त्र धारण किये हो, हाथ में रजोहरण और दण्ड लिए हुए हो, ऐसे व्यक्तिविशेष को 'महात्मा' के रूप में पहचानता है । २७१ और जिसे शरीर की कतई परवाह नहीं, तन-बदन पर मैल की पर्त जम गयी हो, कपडे मैले-कुचैले हों, बेढंगे वस्त्र धारण किये हो, उसे भी बहिर्दृष्टि मनुष्य महात्मा कहता हैं । जानते हो ? तत्त्वदृष्टि मनुष्य 'महात्मा' को किस कसौटी से जानता है ? पहचानता है ? ज्ञान के प्रभुत्व के माध्यम से पहचानता है । ★ ज्ञान - साम्राज्य का जो अधिपति वह महात्मा ! ★ ज्ञान की प्रभुता का प्रभु यानि महात्मा ! तत्त्वदृष्टि जीव, कसौटी करते हुए देखता है : "इसमें क्या ज्ञान की प्रभुता है ? साथ ही, इसके ज्ञान साम्राज्य का विस्तार कितना और कैसा है ?" बिना ज्ञान, महानता असम्भव है। ज्ञान के बिना जीव वास्तविक 'महात्मा' नहीं बन सकता ! ज्ञान की प्रभुता से युक्त महापुरुषों को सिर्फ तत्त्वदृष्टि मनुष्य ही पहचान सकता है । सम्भव है कि वे ज्ञानी महात्मा शरीर पर भस्म न लगाते हों, अपनी देह को और वस्त्रों को मैले कुचैले नहीं रखते हों, ना ही केश का लुंचन कराते हो। ऐसी स्थिति में बाह्यदृष्टि जीव उनको महात्मा के रूप में नहीं देख सकता है। लेकिन जहाँ ज्ञान का सर्वथा अभाव हो, फिर भी शरीर पर भस्म का लेपन होगा, तन-बदन गंदा होगा, केश- लुंचन होगा... वहाँ बाह्यदृष्टि जीव को आकर्षित होतें देर नहीं लगेगी ! हालाँकि उसे वहाँ ज्ञान का प्रकाश नहीं मिलेगा । वह ( बाह्यदृष्टि जीव) ज्ञानार्जन के लिए महात्माओं की खोज करता ही कहाँ है ? वह महात्माओं के पास, संत चरणों में सर अवश्य झुकाता है, परन्तु भौतिक सुख पाने के साधन जुटाने के लिए ! जानते हों, वह कौन से साधन हैं ? 'सम्पत्ति कैसे इकट्ठी करना ? एक रात में सुलतान कैसे बनना ! सोना-चाँदी किस तरह, बटोरना और पुत्र-पौत्रादि कैसे प्राप्त करना !' ऐसी अजीबोगरीब पौद्गलिक वासनाओ की तृप्ति के लिए वह संत चरण में झुकता है ! उसकी यह दृढ़ मान्यता
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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