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________________ २७० ज्ञानसार ऐश्वर्यशाली को, बलशाली को और उद्यमवीरों को अन्त में असहाय स्थिति में देखते हैं : तुरगरथेभनरावृतिकलितं दधतं बलमस्खलितम् । हरति यमो नरपतिमपि दीनं मैनिक इव लघुमीनम् ॥ विनय विधीयतां रे श्री जिनधर्मः शरणम् जिनके पास हिनहिनाता अश्वदल था, मदोन्मत्त हाथियों का प्रचंड सैन्य था और था अपूर्व शक्ति का अभिमान ! ऐसे रथी-महारथी महान् शक्तिशाली राजामहाराजाओं को यमराज चुटकी में उठा ले गए ! जैसे मछुआरा एकाध मछली को ले जाता है ! उस समय उन राजा-महाराजाओं की कैसी दयनीय दशा होती होगी? क्षणिक, भययुक्त और पराधीन पुद्गल-जन्य ऐश्वर्य, तत्त्वदृष्टि उत्तम पुरुष को विस्मित नहीं कर सकता ! क्योंकि उनके लिए ऐसा ऐश्वर्य कोइ मूल्य नहीं रखता । उन्हें सिर्फ चिदानन्दमय आत्मस्वरुप का मूल्यांकन होता है। वे आत्मा के अविनाशी, अक्षय, अनंत, अगोचर, अभय एवं स्वाधीन ऐश्वर्य के लिए दिनरात प्रयत्नशील रहते हैं। जिस ऐश्वर्य को बहिर्दृष्टि मनुष्य शिरोधार्य करने में स्वयं को गौरवान्वित समझता है, उसे अन्तदृष्टि महात्मा पैरों तले कुचलने में ही अपना हित, परमहित मानता है। भस्मना केशलोचेन वपुर्धतमलेन वा । महान्तं बाह्यग् वेत्ति चित्साम्राज्येन तत्त्ववित् ॥१९॥७॥ अर्थ : बाह्यदृष्टि मनुष्य शरीर पर राख मलनेवाले को, केशलोच करनेवाले को अथवा शरीर पर मल धारण करनेवाले को महात्मा समझता है, जबकि तत्त्वदृष्टि मनुष्य ज्ञान की गरीमावाले को महान मानता है । विवेचन : महात्मा ! कौन महात्मा ? बाह्यदृष्टि जीव तो शरीर पर भस्म मलनेवाले को, सिर पर जटा बढानेवाले को, वस्त्र के नाम से केवल लंगोटी धारण करनेवाले को
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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