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तत्त्व-दृष्टि
के अस्तबल में विशेष कुछ नहीं लगता ।
विवेचन : ऐश्वर्य !
राजभवन का वैभव !
आज के राष्ट्रपति भवन का वैभव अथवा विविध राज्यों के राजपाल, प्रधानमन्त्री, एवं मुख्यमंत्रियों के आलिशान बंगले का वैभव और सुख सामग्री का दर्शन कर तुम्हारी आँखे क्या आश्चर्य से चकित रह जाती हैं ? तिरंगा लहराते उनके राजकीय भवन, राजा-महाराजाओं के रथादि वाहनों से अधिक मूल्यवान विदेशी कारें, मोटर साइकिल और स्कूटर आदि देख कर क्या तुम मुग्ध हो जाते हो ? इसका अर्थ यही है कि तुम बाह्यदृष्टि के वशीभूत हो ! विश्व-दर्शन करने में तल्लीन हो । अब भी तुम्हारी आँखे खुली नहीं हैं, तुम वास्तविकता से ठीक-ठीक दूर हो और तुम्हारा तत्त्वांजन होना शेष है ! 'मेरे पास इतनी सारी सम्पत्ति कब हो और मैं भी आलिशान भवन, मनभावन वाहन और निरंकुश सत्ता का स्वामी कैसे बनुं ?' आदि चिंतन में सदा सर्वदा खोये रहते हो तो नि:संदेह तुम्हारी अन्तर्दृष्टि के पट खुले नहीं हैं ! फिर भले ही तुम धर्माराधना करते हो, रात-दिन प्रभुभजन करते हो ! यदि तुम श्रमण हो तो राजसी ठाठ-बाठ और भवन - वाहन देखकर क्या विचार करोगे ? ‘परलोक में भी इतने ही ऐश्वर्य और वैभव का स्वामी बनूं !' ऐसे अरमान तो दिलोदिमाग में नही बसा रखे हैं न ? ऐश्वर्यसम्पन्न राजा-महाराजा, राष्ट्रपति-प्रधानमन्त्री - राज्यपाल, मिल-मालिक अथवा उद्योगपतिओं से प्रभावित हो, स्वयं ऐसा बनने के सपने तो नहीं देखते न ? यदि तुम्हारी अन्तर्दृष्टि-तत्त्वदृष्टि जागृत है तो तुम इन बातों से प्रभावित नहीं बनोगे ! उनके जैसे ऐश्वर्यधारक बनने के अरमान नहीं रखोगे ! बल्कि इन सब पौद्गलिक पदार्थों की अनित्यता, असारता और क्षणभंगुरता का विचार करोगे, चिंतन मनन करोगे !
★ 'इन्द्रजालोपमाः स्वजनधनसंगमाः ।'
स्वजन, धन, वैभव... इनका संयोग इन्द्रजाल - सा है !
★ 'तेषु रज्यन्ति मूढस्वभावाः ! '
इसमें मूढ... विवेकभ्रष्ट लोग ही आकण्ठ डूबे रहते हैं ! अन्तर्दृष्टि महात्मा
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